SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६३) - अब इस संख्या एक लाख अठहत्तर हजार आठ सौ बयालीस (१७८८४२) को लवण समुद्र की परिधि में से निकाल देने के बाद उसे दो सौ बारह से भाग देने पर छः हजार छ: सौ चौदह योजन और उन्तीस, दो सौ बारह २६/२१२ अंश योजन होते है । इस प्रकार के वे अंश कुल दो सौ और बारह होते हैं और प्रत्येक क्षेत्रों का यथा योग्य कल्पीत किया उस अंश से चौदह क्षेत्र के मुख का विस्तार आता है । (३४-३७) वह इस प्रकार : १५,८१,१३६ - लवण समुद्र की परिधि १,७८,८४२ - वर्षधर और इषुकार पर्वत विस्तार निकाल देना १४०२६७ शेष रहता है इसे २१२ से भाग देना । २१२) १४०२२६७(६६१४ १२७२ ०१३०२ १२७२ ००३०६ २१२ G90 ८४८ = ६६१४- २६/२१२ योजन चौदह क्षेत्र के मुख्य का विस्तार होता है । भाग कल्पनां चैवं - एकै कोऽशो भरतयोस्तथैरवतयोरपि । चत्वारो हैमवतयो हैं रण्वतयोरपि ॥३५॥ हरिवर्षाख्ययोरेवं, तथा रम्यक योरपि । .. पूर्वापरार्द्ध गतयोरंशाः षोडश षोडश ॥३६॥ चतुष्पष्टिश्चतुष्पष्टि देह क्षेत्रयोर्द्वयोः । द्वि शती द्वादश चैवं, भागाः स्युः सर्वं संख्यया ॥४०॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy