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________________ (६१) तथाह्यत्र हिमवतोर्गियोः शिखरिणोरपि । विष्कम्भोऽयं जिनैरुक्तः, पूर्वापरार्द्ध भाविनोः ॥२६॥ योजनानां शतान्येकविंशतिः पन्चचोपरि । कलाः पन्चैवाथ महाहिमवतोश्च रूक्मिणोः ॥२७॥ अष्टावेव सहस्राणि, योजनां चतुःशती । एक विंशत्यभ्यधिका, तथैवैक कलाधिका ॥२८॥ त्रयस्त्रिं शत्सहस्राणि, योजनानां शतानि षट् । स्फुरच्चतुरशीतीनि, कलाश्चतस्र एव च ॥२६॥ विष्कम्भोऽयं निषधयोर्गिर्योनीलवतोरपि । द्वादशानामप्यमीषां, व्याससंकलनात्विमम् ॥३०॥ लक्षमेकं योजनां षट्सप्ततिसहस्रयुक्त । शतान्यष्टौ द्विचत्वारिंशता समधिकानि च ॥३१॥ वह इस प्रकार से है :- धातकी खण्ड के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध के हिमवान् और शिखरी पर्वत की चौड़ाई दो हजार एक सौ पांच योजन तथा पांच कला श्री जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है, तथा महा हिमवान् और रूकमी पर्वत की चौड़ाई आठ हजार चार सौ इक्कीस योजन और एक कला । निषध और नीलवान पर्वत की चौड़ाई तैंतीस हजार छ: सौ चौरासी योजन और चार कला है और इन बारह पर्वतों की व्यास की संकलना चौड़ाई की जोड़ एक लाख छिहत्तर हजार आठ सौ बयालीस योजन होता है । (२६ से ३१) वह इस प्रकार : लघु.हिमवंत पर्वत २१०५ योजन-५ कला शिखरी पर्वत २१०५ योजन ५ कला महाहिमवंत पर्वत ८४२१ योजन १ कला रूक्मि पर्वत ८४२१ योजन १ कला निषध पर्वत ३३६८४ योजन ४ कला नीलवंत पर्वत ३३६८४ योजन ४ कला
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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