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________________ (५६) जगत के हितकारी भगवान ने इस द्वीप के मध्य भाग में दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा के अन्दर दो इषुकार पर्वत कहे है (११) ये इषुकार पर्वत पांच सौ योजन ऊंचे हैं, एक हजार योजन चौड़े और चार लाख योजन लम्बे है। (१२) ये इतने लम्बे होने के कारण कालोदधि और लवण समुद्र के स्पर्श करने वाले ये पर्वत मानों कि लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र को परस्पर एकत्रित करते हो इसलिए हाथ प्रसारित किए हो इस तरह लगते हैं । (१३) ये दोनों पर्वत रत्न द्वारा तेजस्वी चार-चार शिखरों से सुशोभयमान हो रहे हैं और उसमें से कालोदधि समुद्र की ओर में रहे दोनों पर्वत में कूट है और ऊपर एक-एक चैत्यालय है । (१४) आभ्यां द्वाम्यामिषुकार पर्वत्पाभ्यामयं द्विधा । द्वीपो निर्दिश्यते पूर्व पश्चिमार्द्धविभेदतः ॥१५॥ इन दो इषुकार पर्वतों से दो भाग में रहे ये द्वीप पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध कहलाता है । (१५) यच्च जम्बूद्वीपमेरोः प्राच्या पूर्वार्द्धमस्य तत् ।। तस्य प्रतीच्यामर्द्ध यत्नत्पश्चिमार्द्धमुच्यते ॥१६॥ - जम्बू द्वीप के मेरू पर्वत से पूर्व में यह धातकी खंड का जो अर्धभाग है वह पूर्वार्ध है और उसके पश्चिम में जो अर्धभाग है वह पश्चिमार्ध कहलाता है । .. द्वयोरप्यर्द्धयोर्मध्ये, एकैको मन्दराचलः । तयोरपेक्षया क्षेत्र व्यवस्थाऽत्रापि पूर्ववत् ॥१७॥ ..... दोनों अर्धविभाग के मध्य में एक-एक मेरू पर्वत है । उसकी अपेक्षा से यहां धातकी खण्ड के अन्दर भी क्षेत्र व्यवस्था पूर्व में जम्बूद्वीप में कही है । वैसा ही जानना । (१७) तथाहि - अपाच्यामिषुकारो य, इहत्यमेव पेक्षया। पूर्वतस्तस्य भरलक्षेत्रं प्रथमतो भवेत् ॥१८॥ ततो है मवतक्षेत्रं हरिवर्षं ततः परम् । ततो महाविदेहाख्यं, रम्यकाख्यं ततः परम् ॥१६॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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