SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (५८) हैं और इसके आगे कही हुई लवण समुद्र के पास की परिधि है वहं आद्य परिधि कहलाती है । (५-६) मध्यमः परिधिर्लक्षाण्यष्टाविंशतिरेव च । षट्चत्वारिंशत्सहस्राः पन्चाशद्योजनाधिकाः ॥७॥ धातकी खण्ड की मध्यम परिधि अट्ठाईस लाख सैंतालीस हजार पचास (२८४७०५०) योजन से अधिक है । (७) जम्बू द्वीप वदेषोऽपि द्वारैश्चतुर्भिरन्वितः । तेषा नाम प्रमाणादि, सर्वं तद्वभ्दवेदिह ॥ ८ ॥ जम्बू द्वीप के समान यह धातकी खंड भी विजयादि चार द्वार से युक्त है उसके नाम प्रमाणादि सर्व जम्बूद्वीप के समान है । (८) किंत्वेतद् द्वार पालानां विजयादि सुधा भुजाम् । परिस्मिन् धातकी खण्डे, राजधान्यो निरूपिताः ॥६॥ परन्तु उन द्वार के द्वार पाल जो विजय आदि देव है उनकी राजधानियां आगे दूसरे धातकी खंड में । (६) दश लक्षा योजनानां सहस्राः सप्तविंशतिः । पन्चत्रिंशा सप्तशती मिथो द्वारामिहान्तरम् ॥१० ॥ , विजयादि द्वारों का परस्पर अन्तर दस लाख सत्ताईस हजार, सात सौ पैंतीस (१०२७७३५) योजन होता है । (१०) " दक्षिण स्यामुदीच्यां च द्वीपस्यैतस्य मध्यगौ । इषुकारौ नगवरौ, जगदाते जगद्धितैः ॥११॥ योजनानां पन्च शतान्युच्चौ सहस्त्र विस्तृतौ । चत्वारि योजनानां च लक्षाण्यायामतः पुनः ॥१२॥ अतः एव स्पृष्टवन्तौ, कालोदलवणोदधी । आभ्यां संगन्तुमन्योऽत्यं भुजाविव प्रसारि तौ ॥१३॥ कूटैश्चतुभिः प्रत्येकं शोभितौ रत्न भासुरैः । चैत्यमेकैकं च तत्र, कूटे कालोदपार्श्वगे ॥१४॥ चतुर्भिः कुलकं ॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy