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विश्वाश्चर्यद कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष - द्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः। काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे, संपूर्ति सुखमेक विंशति तमः सर्गो मनोज्ञोऽगमत् ॥२८३॥
ग्रन्थानं ॥३३७॥ ॥ इति श्री लोकप्रकाशे एक विंशतिततम सर्गः समाप्तः ॥ ..... . इस जगत को आश्चर्य चकित करने वाले कीर्तिमान उपाध्याय प्रवर श्री कीर्ति विजय जी महाराज के अन्तेवासी राजश्री माता के पुत्र और श्री तेजपाल पिता के अंगज श्री विनय विजय जी उपाध्याय ने जगत के निश्चित तत्वों को ज्ञान कराने में दीपक समान यह काव्य बनाया है । इस काव्य में सुन्दर कोटी का इक्कीसवां मनोज्ञ सर्ग सुख रूप समाप्त हुआ है । (२८३):
. इक्कीसवां सर्ग समाप्त