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तरंगे पर्वत ऊपर होकर जाते तरंगों से उद्धत देखती है और अपने को वीर मानते यह समुद्र दिशाओं के पर्वतों को जीतने की इच्छा से मानो कि दौड़ रहा है । ऐसा दिख रहा । (२८०)
क्रुद्धा खण्डलवन मण्डलजालज्जवाला करालानलः, त्रस्तानेक गिरीन्द्र कोटि शरणं कल्पद्रुमाणां वनम् । तत्तद्वस्तु वदान्ततातरलितैरप्यर्थितो निजरै - यौरलाकर इत्यनेककविभिर्नाना विकल्पैः स्तुतः ॥२८८॥ (शार्दूल विक्रीडिते) .
क्रोधायमान बने देवेन्द्र के वज्र मंडल में से फैल रही ज्वाला के विकराल अग्नि से त्रसित हुए अनेक.करोड़ गिरीन्द्रों के शरण रूप कल्प वृक्षों के वन स्वरूप और उस-उस वस्तुओं के दान में उदारता युक्त देवों ने भी जिसके पास में याचना की है, वह इस समुद्र (लवण समुद्र) की अनेक कवियों के द्वारा विविध प्रकार से स्तवना (स्तुति) की है । (२८१)
नितीडक्रीडदम्भश्चरनरतरूणीक्लुप्तदीपोपचार... नूतैरत्नैरयत्लोज्जवल घृणिभिः क्वापि दीप्रांतराल । . क्वापि प्राप्त प्रकर्षः पृथुमकर कराकृष्ट पाटीन पीठ, .
भ्रस्यन्नक्र प्रमोदोल्लन चल जलोसिक्त डिंडीर पिंडैः ॥२८२॥
(स्रग्धरा ) दशभिरादि कुलकं । ... लज्जा रहित क्रीडा कर रही जलचर मनुष्यों की तरूणियों के द्वारा किये हुए दीपक के उपचार से प्रेरित स्वाभाविक उज्जवल और अनेक किरणोंवाला नये रत्नों से किसी स्थान में तेजस्वी अन्तराल वाला और किसी स्थान पर विशाल मगरमच्छ के हाथी से आकृष्ट करते मछली की पीठ पर से नीचे गिरते और जलचर जंतुओं से हर्षपूर्वक उछालते चंचल पानी के पड़ने से उत्पन्न हुए समुद्र के झाग के समूह से प्रकर्षता प्राप्त करने वाला यह लवण समुद्र शोभायमान हो रहा है। (२८२)