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स्थल चरस सर्वजाति सत्वाकृति मदनेकझषौधपूर्णमध्यः । प्रलयतरलितं जगद्दधानो, हरिरिव कुक्षि निकेतने कृपार्द्रः ॥ २७७॥ स्थलचर जीवों के समान सर्वजाति के जीवों की आकृति वाले अनेक मछली के समूह से मध्य भाग जिसका पूर्ण है, यह कृपालु समुद्र मानो प्रलयकाल से घबराये न हो इस तरह जगत के कृपालु विष्णु के समान अपने उदर रूप भवन में धारण करता है । (२७७)
(प्रमुदित वदना (मंदाकिनी) प्रभाश्च )
क्वचिदिह कमलायाः कौतुकादारा मंत्या, जलचर नरकन्यालीषु हल्ली सकेन । अयमुपनयतीवा पत्यरागैकगृह्यः, पवनजवनवेलागर्जिवाद्यं विनोदात् ॥२७८॥ जलचर मनुष्यों की कन्याओं की श्रेणि में कौतुक से रास क्रीड़ा से खेलती लक्ष्मी के अपत्य रूप के (लोगों में समुद्र की पुत्री मानी जाती है) राग के वश बना हुआ यह समुद्र वायु के वेग वाली ज्वार-भाटा के गर्जना रूप वाद्य- -बाजे को मानो हपूर्वक बजा रहा है । (२७८)
तरलतरङ्गोत्तुङ्गरङ्गत्तुरङ्गः, प्रसरदतुलवेलामत्तमातङ्गसैन्यः ।
अतिविपुलमनोज्ञद्वीपदुर्गैरूद्ग्रः, कलयति, नृपलक्ष्मीं वाहिनीनां विवोढा ॥२७६॥ (मालिनी)
अत्यन्त चपल तरंग रूपी उत्तुंग ( बहुत ऊं.) और कूदते अश्व के सैन्य वाले, फैलती बड़ी बड़ी लहर रूपी मदोन्मत्त हाथी के सैन्य वाले, अति विशाल और मनोहर द्वीप रूप किले द्वारा श्रेष्ठ और नदियों का स्वामी यह लवण समुद्र राज- लक्ष्मी की शोभा को धारण करता है । (२७६)
स्वच्छोन्मूर्च्छदतुच्छ मत्स्यपटलीपुच्छोच्छलच्छीकरः, च्छेदोत्सेकितबुब्दुदार्बुदमिषोद्भिन्न श्रमाम्भः कणः । हेलोत्प्लाविततुङ्ग पर्वत शतोत्सर्पत्तरङ्गोद्धतो, वीरं मन्य इवैष चिक्रमिषया दिग्भूभृतां धावति ॥ २८० ॥
समुद्र के ऊपर आते बड़े-बड़े मछलियों के समूह की पूच्छ में प्रहार से उछलते पानी के बिन्दु नीचे पानी में गिरते है उससे उत्पन्न हुआ स्वच्छ बुलबुला झाग के बहाने से पसीना के बिन्दु वाला, पानी की लहरों से गीला होते सैंकड़ो