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(४६) नन्वत्र षोडशहस्रोच्चया शिखयाऽम्बुधौ । ज्योतिष्काणां संचरतां, व्याधातो न गतेः कथम्? ॥२५६॥
यहां प्रश्न करते हैं कि - यहां समुद्र के अन्दर रही सोलह हजार योजन ऊंची शिखाओं के द्वारा समुद्र में संचरण करते ज्योतिष्क विमानों की गति का व्याघातविघ्न क्यों नहीं करता ? (२५६)
'बूमोऽत्र ये ज्योतिषिक विमाना लवणाम्बुधौ । ते भिन्दन्तः संचरन्ति, जल स्फटिकजा जलम् ॥२५७॥ तदेतेषां जलकृतो, व्याघातो न गतेर्भवेत् । जलस्फटिकरत्नं हि, स्वभावाजल भेदकृत ॥२५८॥
इसका उत्तर देते है कि - लवण समुद्र में जो ज्योतिष्क विमान है वे जलफटीक रत्न के होने से वे विमान संचरण (गमन) करते समय जल को भेदन कर जाता है, इससे इन विमानों की गति में जल से व्याघात नहीं होता । क्योंकि जल स्फटिक रत्न स्वभाव से ही जल को भेदन करने वाला होता है । (२५७-२५८)
उर्द्धलेश्याकास्तथैते, विमाना लवणोदधौ ।
ततः शिखायामप्येषां प्रकाशः प्रथतेऽभितः ॥२५६॥ . लवण समुद्र में परिभ्रमण करने वाले ये विमान ऊर्ध्व प्रकाश वाले होते है अर्थात उनका प्रकाश ऊपर की दिशा में फैलता है । इससे उन विमानों का प्रकाश : शिखा में भी चारों तरफ फैल जाता है । (२५६)
सामान्य स्फाटिकोत्थानि, शेषेषु द्वीप वार्द्धिषु । ज्योतिष्काणां विमानानि, नीचैः सर्पन्महांसि च ॥२६०॥
शेष द्वीप समुद्र के ज्योतिष्क विमान सामान्य स्फटिक के बने है और उन विमानों का तेज नीचे फैलता है । (२६०)
तथाह - विशेषणवती - "सोलस साहस्सियाए सिहाए कहं जोइ सियविधातो न भवति ?, तत्थ भन्नइ, जेणं सूर पण्णत्तीए भणियं -"
जोइ सिय विमाणाइंसव्वाइंहवंति फालियमयाइं। दग फाालि यामया पुण लवणे जे जोइ सविमाणा ॥२६०॥(अ)