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समक्षेत्री नक्षत्रों के विषय में ६७, अर्धक्षेत्री नक्षत्रों के विषय में ३३ १/२ और सार्धक्षेत्री नक्षत्रों के विषय में १३४ सड़सठवां भाग समझना । (६६२) इस तरह नक्षत्र के साथ में सूर्य चन्द्र का संयोग काल कहा है । (१२)
ऋक्षेषु मषु मासानां प्रायः परिसमाप्तयः । तानि माससमा ख्यानि स्युः ऋक्षाणि कुलाख्यया ॥६६३॥ प्रायो ग्रहणश्चात्र कदाप्युपकुलोडुभिः ।
समाप्तिः जायते मासां भैः कुलोप कुलैरपि ॥६६४॥ __अब नक्षत्रों के कुलादि विषय में कहते हैं :- प्रायः जिस नक्षत्र में मास पूरा होता है, वह नक्षत्रं कुल से उस मास के नाम से होता है । यहां प्रायः शब्द से इस तरह समझना है, कि कुल नक्षत्रों से ही नहीं परन्तु कदाचित् उपकुल और कुलोपकुल नक्षत्रों से भी मासपूर्ण होता है । (६६३-६६४) - कुलोडुभ्योऽधस्तनानि भवन्त्युपकुलान्यथ ।
स्युः कुलोपकुलाख्यानि तेभ्योऽप्यधस्तनानि च ॥६६५॥
कुल नक्षत्रों से नीचे के उपकुल नक्षत्र होते हैं, और इससे नीचे के कुलोपकुल नक्षत्र होते हैं । (६६५) . .
तानि चैवमाहु :- .. कुलभान्यश्चिनी पुष्यो मघा मूलोत्तरात्रयम् । द्विदैवतं मृगश्चित्रा कृतिका वासवानि च ॥६६६॥ उपकुल्यानि भरणी ब्राह्यं पूर्वात्रयं करः ।। ऐन्द्रमादित्यमश्लेषा वायव्यं पौष्णवैष्णवे । कुलोपकुल भान्यार्दाभिजिन्मैत्राणि वारूणम् ॥६६७॥ षट्पदी ॥
और उन्हें इस प्रकार कहते हैं - अश्विनी, पुष्य, मघा, मूल, तीन उत्तराविशाखा, मृगशीर्ष, चित्रा, कृतिका और धनिष्टा ये बारह कुल नक्षत्र हैं । भरणी, रोहिणी तीन पूर्वा, हस्त ज्येष्ठा, पुनवसु, अश्लेषा, स्वाति, रेवती तथा श्रवण ये बारह उपकुल नक्षत्र है । तथा आर्द्रा अभिजित्, अनुराधा एवं शततारा ये चार कुलोपकुल नक्षत्र हैं । (६६६-६६७)