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________________ (४८६) तथाहि - लक्षत्रयं योजनानामष्टादश सहस्रयुक् । शत अयं पंचदशं परिक्षेपोऽन्त्यमण्डले ॥५४३॥ अयं त्रिभिः सप्तषष्टि सहितैः ताडितः शतैः । कोटय एकादश लक्षा अष्ट षष्टिः किलादिकाः ॥५४४॥ सहस्ररेकाविंशत्या शतैः षभिः सपंचभिः । । राशेरस्यैकविंशत्या सहस्त्रैर्नवभिः शतैः ॥५४५॥ हृते षष्टयधिकैः भागे मुहूर्तगतिराप्यते । नक्षत्राणां किल सर्व बाह्य मण्डल चारिणाम् ॥५४६॥ _ इति मुहूर्त गतिः ॥६॥ वह इस तरह से है - सर्व से बाहर के मंडल की परिधि तीन लाख अठारह हजार तीन सौ पंद्रह योजन है, इसे ३६७ से गुणा करने पर ग्यारह करोड़ अड़सठ लाख इक्कीस हजार छह सौ पांच आता है, और इसे २१६६० द्वारा भाग देने पर ५३१ १६३६५/२१६६० आता है । (५४३ से ५४६) 'ख्याल रहे कि यह मुहूर्त गति द्वार में नक्षत्र के आठ मण्डलों में से प्रथम सर्वाभ्यन्तर और दूसरा सर्व बाह्य इस तरह, दो ही मंडलों के नक्षत्रों की मुहूर्त गति आयी है।' मुहूर्तगति का स्वरूप पूर्ण हुआ।. षट् सु शेषमण्डलेषु मुहूर्तगति संविदे । __सुखेन तत्तपरिधिज्ञानाय कि यतेऽधुना ॥५४७॥ . भमण्डजानां सर्वेषां मण्डलेष्वमृत द्युतेः । समवतारः तत्राद्यमाधे शशांक मण्डले ॥५४८॥ भमण्डलं द्वितीयं च तृतीये चन्द्रमण्डले । षष्टे तृतीयं विज्ञेयं लवणोदधि भाविनि ॥५४६॥ चतर्थ सप्तमे ज्ञेयं तथा पंचममष्टमे । विज्ञेयं दशमे षष्टमेकादशे च सप्तमम् ॥५५०॥ अष्टमं च पंचदशे शेषाणि तु सदोडुभिः । सप्त चन्द्र मण्डलानां परिक्षेपानुसारतः ॥५५१॥ अब नक्षत्र मंडलों का चन्द्रमा के मण्डल के साथ में आवेश विषय कहते हैं । शेष छ: मंडल रहे, उसमें सुखपूर्वक नक्षत्रों की मुहूर्तगति जानने के लिए उनउन मंडलों के घेराव का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । उसे प्राप्त करने के लिए सर्व
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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