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(४८३) "कृतिकादि क्रमस्तु लोके सप्तशिलाक चक्रादिष्वेव स्थानेषूपयोगी
श्रूयते"
अर्थात् कृत्तिका आदि का क्रम तो लोगों में सप्त शिलाक चक्र आदि स्थानों में ही उपयोगी कहलाता है।
आरंभ नन्वभिजितो नक्षत्रानुक्रमो यदि । शेषोडूनामिव कथं व्यवहार्यत्वमस्य न ॥५०६॥
यहां प्रश्न करते हैं कि जब आप 'अभिजित्' से आरंभ कर नक्षत्रों का क्रम कहते हो, तब शेषं नक्षत्रों के समान यह अभिजित् नक्षत्र व्यवहार में क्यों नहीं है ? (५०७)
अत्रोच्यतेऽस्य शशिना योगो यदल्पकालिकः । ऋक्षान्तरानुप्रविष्टतयास्य तद्विचक्षणम् ॥५०७॥
इसका उत्तर देते हैं - चन्द्रमा के साथ में इस अभिजित् नक्षत्र का संयोग स्वल्प कालिक है । फिर चन्द्रमा तुरन्त ही अन्य नक्षत्र में प्रवेश कर देता है । इसलिए यह अव्यवहारी है । (५०७).
- “यदुक्तं समवायांगे सप्तविंशे समवायें। जम्बूद्दीवे दीवे अभीइवज्जेहिं सत्ता विसाहिं णक्खत्तेहिं संववहारे वट्टइ ॥ एतद् वृत्तिः यथा । जम्बू द्वीपे न घातकीखण्डादौअभिजिद्वजैः सप्तविंशत्या नक्षत्रैःव्यवहारःअभिजिन्नक्षत्रस्य उत्तराषाढा चतुर्थपादानु प्रवेश नात् ॥ इति ॥" ...
'समवायांग सूत्र में भी सत्ताइसवें समवाय में कहा है कि - जम्बू द्वीप में अभिजित सिवाय के २७ नक्षत्र व्यवहार में वर्ताव होता है । इसकी टीका में इस तरह कहा है - जम्बू द्वीप में घात की खण्ड आदि अभिजित् बिना के २७ नक्षत्रों से व्यवहार प्रवृत्ति होती है, क्योंकि अभिजित् नक्षत्र का उत्तराषाढा के चौथे पाद में समावेश होता है।'
लोके तु - औत्तराषाढयन्त्यांहिचतस्त्रश्च श्रुतेः घटीः । वदन्त्यभिजितो भोगं वेधसत्ताद्यवेक्षणे ॥५०८॥
लोक में तो वेध सत्ता आदि देखने में आती है, उसमें उत्तराषाढा का अभिजित के साथ में संयोग आखिर पाद की चार घड़ी तक ही कहा है । (५०८)