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के एक मुहूर्त में गति, ७- नक्षत्र मंडलों का चन्द्रमा के मंडल साथ में आदेश, ८- इनका दिशाओं के साथ में योग, ६- इनके अधिष्ठायक देवता, १०- इनके ताराओं की संख्या, ११- इनकी आकृति, १२- इनका सूर्य और चन्द्रमा के साथ में संयोग काल का मान, १३- इनके कुलादि के नाम, १४- इनका अमावस्या और पूर्णिमा के साथ में योग और १५- प्रत्येक मास में अहोरात्रि को सम्पूर्ण करने वाले नक्षत्र । इसे प्रथम मंडल की संख्या कहते हैं । (४६५ से ४६६)
अभिजित् श्रवणं चैव धनिष्ठा शततारिका । पूर्वा भद्रपदा सैवोत्तरादिकाथ रेवती ॥५००॥ अश्विनी भरणी चैव कृतिका रोहिणी तथा । मृगशीर्ष तथा चार्दा पुनर्वसू ततः 'परम ॥५०१॥ पुष्योऽश्लेषा मघा पूर्वा फाल्गुन्युत्तर फाल्गुनी । हस्तश्चित्रा तथा स्वाति विशाखा चानुराधिका ॥५०२॥ ज्येष्ठां मूलं तथा पूर्वाषाढा सैवोत्तरापि च । जिन प्रवचनोपज्ञो नक्षत्राणामयं कमः ॥५०३॥
श्री जिन शास्त्र में नक्षत्रों की संख्या अट्ठाईस कही है, उसका अनुक्रम इस प्रकार है :- १- अभिजित, २- श्रवण, ३- धनि, ४-शततारा, ५- पूर्व भाद्रपदा, ७- रेवती, ८- अश्विनी, ६- भरणी, १०-कृतिका, ११-रोहिणी, १२-मृगशीर्ष, १३- आर्द्रा, १४- पुनर्वसू, १५- पुष्य, १६- अश्लेषा, १७- मघा, १८- पूर्वा फाल्गुना १६- उत्तरा फाल्गुना, २०- हस्ता, २१- चित्रा, २२- स्वाति, २३- विशाखा, २४- अनुराधा, २५- ज्येष्ठा, २६- मूला, २७- पूर्वषाढा और २८ उत्तराषाढा । (५००-५०३)
अश्विन्याः कृतिकायाः यत् प्रसिद्ध लौकिकक्रमम् । उल्लंध्यात्र प्रवचने यदेतत् क्रमदर्शनम् ॥५०४॥ तत्र हेतुः प्रथमतः संयोगः शशिना समम् । युगस्यादावभिजितः शेषाणां तु ततः क्रमात् ॥५०॥
लौकिक क्रम में तो प्रथम अश्विनी बाद में भरणी, फिर कृतिका इत्यादि अनुक्रम से है, उसका उल्लंघन करके जैन सिद्धान्त में जो यह क्रम कहा है, उसका हेतु इस तरह है कि युग के आदि में चन्द्र के साथ में प्रथम अभिजित् नक्षत्र का योग होता है, और उसके बाद ही अनुक्रम से नक्षत्रों का योग होता है । (५०४-५०५)