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युग के प्रारम्भ के बाद अमुक दिन में कौन सा चन्द्रायण है, उसे जानने की रीति कहते हैं :- युगातीत पूर्व की संख्या को पंद्रह द्वारा गुणा करना, उसके बाद पर्वातीत तिथियां उसमें मिलना । उसमें जो संख्या-अंक आता है, उसमें से क्षयतिथियां बाद करना, उसमें जो संख्या आती है, उसे अर्ध चन्द्र मास से भाग देना। इस तरह करके भाग देने में जो संख्या आती है, वह यदि सम अंक हो तो जानना। यदि दक्षिणायन व्यतीत हुआ, इस विषय का अंक हो तो जानना । अथवा उत्तरायण व्यतीत हुआ, यदि अंश बढ़ जाय, उसे सड़सठ से भाग देना । अतः भाग देने में जो संख्या आए उतना चलते अयन के दिन (वर्ष के आधे भाग के दिन) व्यतीत हुए हैं। ऐसा जानना और वह भी जितने अंश बढ़े उतने सड़साठांश उसके बाद के दिन व्यतीत हुए ऐसा समझना । इस विषय पर दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं । (४७६-४७६)
यथा युगादेरारम्य नवमासव्यतिक्र मे । पंचभ्यां केनचित् पृष्टं किं चन्द्रायणमस्ति भोः ॥४८१॥ कुर्यात् पंचदशननि पर्वाण्यष्टादशात्र च । " क्षिपेत् गतान् पंच तिथीन् त्यक्त्वावम चतुष्टयम् ॥४८२॥ एकसप्तया समेतं संजातं शतयोद्वयम् । भाजकोऽस्य भमासार्धं पूर्णरूपात्मकं न तत् ॥४८३॥ किन्तु सप्तषष्टिभागैः कियद्भिरधिकं ततः । एष .राशिः सप्तषष्ठया भागसाम्याय गुण्यते ॥४८४॥ अष्टादश सहस्राणि सप्तपंचाशताधिकं । शतं जातमितश्चोडुमासार्द्धदिवसा अपि ॥४८५॥ सप्तषष्टया हताः शेषैः वेद वेदलवैर्युताः । जाता; पंच दशाढयानि शतानि नव तैः पुनः ॥४८६॥ हृते भाज्यांकेऽयनानि लब्धान्येकोनविंशतिः । शेषा भाग सप्तशती द्विसप्तत्यधिका स्थिता ॥४८७॥ अस्या भागे सप्तषष्टया लब्धा रूद्रमिता दिनाः । शेषां पंचत्रिंशदंशाः तिष्ठति सप्तषष्ठिजाः ॥४८८॥ चन्द्रायणान्यतीतानीत्येवमेकोनविंशतिः । अनन्तरमतीतं यत्तच्चन्द्रस्योत्तरायणम् ॥४८६॥