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(४७७) चन्द्रोत्तरायणरम्भो युगादिसमये भवेत् । प्रागुत्तरायणं पश्चाद्याम्यायनमिति क्रमः ॥४६६॥ प्रवृत्तिः स्याद्यतो ज्योतिश्चक्रचारैकमूलयोः ।
सूर्य याम्यायन शीतांशूत्तरायणयोः किल ॥४६७॥
युग के आदि समय में चन्द्र का उत्तरायण प्रारम्भ होता है, और इससे पहले उत्तरायण और बाद दक्षिणायन इस तरह अनुक्रम है, और इससे ही ज्योतिश्चक्र की गति एक मूल सद्दश सूर्य के दक्षिणायन की और चन्द्र के उत्तरायण की दोनों की प्रवृत्ति प्रारम्भता एक साथ में होती है । (४६६-४६७)
युगादावेव युगपत्तत्रार्क दक्षिणायनम् । पुष्यसप्तषष्टिजांशत्र योविंशत्यति क्र मे ॥४६८॥ युगादावभिजिद्योग प्रथम क्षण एव तु ।
चन्द्रोत्तरायणारम्भः ततो युक्तं पुरोदितम् ॥४६६॥
युग की आदि में एक साथ में ही पुष्य नक्षत्र का २३/६७ अंश व्यतिक्रम होने के बाद सूर्य का दक्षिणायन होता है, और अभिजित नक्षत्र के योग के पहले ही क्षण में चन्द्र का उत्तरायण प्रारम्भ होता है । इस तरह पहले कहा है वह युक्त ही है । (४६८-४६६) .
"तथोक्तं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र वृत्तौ ।सकल ज्योतिश्चार मूलस्य सूर्य दक्षिणायनस्य चन्द्रोत्तरायणस्य च युगपत् प्रवृत्तिः युगादा वेव । साऽपि चन्द्रायण स्यामिजिद्योग प्रथम समय एवं । सूरायणस्य तु पुष्पस्य त्रयो विंशतौ सप्तषष्टि भागेषु व्यती तेषु । तेन सिद्धं युगस्य आदित्यमिति ॥"
'जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र की वृत्ति में भी कहा है - सर्व ज्योति चक्र के मूल रूप सूर्य के दक्षिणायन से और चन्द्र के उत्तरायण से युग की आदि में एक साथ में ही प्रवृत्ति प्रारम्भ होती है । उसमें भी चन्द्रायण की प्रवृत्ति अभिजित नक्षत्र योग के पहले ही क्षण मेंऔर सूर्यायण की प्रवृत्ति पुष्प नक्षत्र का २३/६७ अंश व्यतिक्रम हो जाने के बाद युग के आदित्य सिद्ध होता है।'
पुष्पस्य सप्त षष्ट्यत्थ विंशत्यंशाधिके ततः । मुहूर्तदशके भुंक्ते मुहूर्तेकोनविंशतौ ॥४७०॥ भोग्यायां सप्तचत्वारिंशदंशायां समाप्यते । विधुनोदीच्यमयनं याम्यमारभ्यतेऽपि च ॥४७१॥ युग्मं ॥