SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४४३) ततश्च - पूर्व मण्डल दृग्मार्ग प्राप्तिस्तेन विवर्जिता । खरांशोः दृक्पथ प्राप्तिमानस्यादिष्ट मण्डले॥२४०॥ सर्व से अभ्यन्तर मंडल से जो तीसरा मंडल है, उसे ही पहले कल्पना कर आगे जैसे-जैसे सूर्य की दृष्टि पथ- प्राप्ति भाव में आती है उसमें १/३६, २/३६ आदि संख्या ध्रुव (निश्चय) की संख्या में मिलाते जाना, मिलाते जो संख्या आती है, उस संख्या को पूर्व मंडल के दृष्टिपथ की रकम में से निकालते जो संख्या आती है, वह इच्छित मंडल में सूर्य की दृष्टिपथ प्राप्ति का मान समझना । (२३८ से २४०) यथान्तर्मण्डलायीके तरणिमण्डले । षट्त्रिंशदेकेन गुण्या स्थितौ राशिस्तथैव सः ॥२४१॥ ततः षटत्रिंशदेववैते त्र्यशीत्युपरिवर्तिषु । योजिता भाग भागेषु जातास्ते चाष्टसप्ततिः ॥२४२॥ एकषष्टया लवैश्चैकः षष्टिभागो भवेत् स च । योज्यते षष्टिभागेषु शेषाः सप्तदश स्थिताः ॥२४३॥ एवं च - त्र्यशीति योजनान्यंशा षष्टिजाता जिनैर्मताः । सप्तदशैकषष्टयंशा शोध्यराशिः भवत्यसौ ॥२४४॥ - उदाहरण रूप में अभ्यन्तर मण्डल सें तीसरा मंडल लो, उसमें पूर्व कहे अनुसार 'ध्रुव' की संख्या १/३६ मिलना, अर्थात् ध्रुव की संख्या लगभग ८३ २३/ ६१ योजन है उसमें १/३६ मिलाने से लगभग ८३ २४/६० होती है यह संख्या 'शोध्य राशि' कहलाती है । शोध्य राशि अर्थात् निकालने वाली संख्या है । (२४१-२४४) अनेन राशिना हीने द्वितीय मण्डलाश्रिते । दृगोचरे तृतीये स्यात् मण्डले दृक्पथो रवेः ॥२४५॥ वह संख्या द्वितीय मंडला श्रित रवि के द्रष्टिपथ की संख्या में से निकाल देने से तृतीय मंडल में सूर्य का द्रष्टिपथ का माप आता है । (२४५) एवं च - सहस्त्रैः सप्तचत्वारिंशता षण्णवर्ति श्रितैः । - योजनानां षष्टि भागैः त्रयस्त्रिंशन्मितैः तथा ॥२४६॥ एकस्य षष्टि भागस्य विभक्तस्यैकषष्टिधा । भागद्वयेन चोष्णांशुः तृतीय मण्डले ॥२४७॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy