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(४३३) "यत्तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सर्वान्तर्मण्डलस्थेरवौ समुद्रदिशितापक्षेत्र विष्कम्भः चतुर्नवतिः योजन सहस्राणि अष्टौ शतानि अष्ट षष्टयाधिकानि चतुरश्च दश भागान् योजनस्य उक्तः, तथा ध्वान्त विष्कम्भश्च त्रिषष्टिः योजन सहस्राणि द्वे च पंच चत्वारिंश दधिके योजनशते षट् च दशभागा योजनस्यायमेव च सर्वबाह्य मण्डलस्थेरवौ ताप क्षेत्र ध्वान्त क्षेत्रयोः पिर्ययेण विष्कम्भः उक्त, स तु जम्बू द्वीप परिधेरेव दशांश द्वय त्रय कल्पनया इति व्यामोहो न विधेयः । यत्तु तत्र सर्वान्तर्मण्डले उभयतः समुदितं द्वीप सम्वन्धि षष्टयाधिकं योजन शतत्रयं न्यूनतया न विवक्षितं । यच्च सर्वबाह्य मण्डले उभयतःसमुदितानिसमुद्रसम्बन्धीनिषष्टयोजनशतान्यधिकतयानविवक्षितानि तत्राविवक्षैव बीजम् । इत्यादिकं अर्थात: उपाध्याय श्री शान्ति चन्द्रो कृत जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ते अवसेयम् ॥' .
"जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में सब प्रकार से अन्दर के मंडल में सूर्य होता है उस समय समुद्र तरफ ताप क्षेत्र की चौड़ाई चौरानवे हजार आठ सौ अड़सठ पूर्णांक चार दशांश (६४८६८ ४/१०) योजन का जो कहा है, तथा अंधकार की चौड़ाई तिरसठ हजार दो सौ पैंतालीस पूर्णांक छः दशांश (६३२४५६/१०) योजन का जो कहा है, और इससे उलटी रीति से उतना ही सर्व प्रकार से बाहर के मंडल में सूर्य होता है तब तापक्षेत्र और अंधकार क्षेत्र की चौड़ाई कही है। वह जम्बू द्वीप की परिधि के दो दशांश तथा तीन दशांश की कल्पना से कहा है । इसलिए उस सम्बन्ध में नहीं मुरझाना चाहिए। वहां सर्व प्रकार से अन्दर मंडल में दोनों तरफ के मिलाकर द्वीप सम्बन्धी तीन सौ साठ योजन कम नहीं कहा, तथा सर्व प्रकार से बाहर के मंडल में दोनों तरफ के मिलाकर समुद्र सम्बन्धी छ: सौ साठ योजन अधिक नहीं कहा । उसमें अविवक्षा ही कारण समझना । यह विषय उपाध्याय श्री शान्ति चन्द्र कृत जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति की टीका में कहा है वहां से जान लेना।"
ताप क्षेत्रस्य च व्यासो यावान् स्याद्यत्र मण्डले । करप्रसारस्तस्या? पूर्वतोऽपरतो ऽपि च ॥१७८॥
जिस मंडल में ताप क्षेत्र का जितना व्यास हो इससे आधा-आधा पूर्व और पश्चिम में सूर्य के किरणों का प्रसार-फैलाव होता है । (१७८)
मेरोर्दिशि तु मेर्वर्द्ध यावत्तेजः प्रसर्पति । पाथोधि दिशि पाथोधेः षड्भागं यावदर्कयोः ॥१६॥