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________________ (३६१) एवं च गिरि कूटानां त्रिविधानां प्रमाणतः । सर्वसंख्या सप्तषष्टया समन्विता चतुःशती ॥१४८॥ इस तरह तीनों पर्वतों के शिखरों का कुल मिलाकर चार सौ सड़सठ होते है। (१४८) द्वात्रिंशतिविजयेषु भरतैरवताख्ययोः । चतुस्त्रिंशतद्वि वृषभकूटाः तुल्याः परम्परम् ॥१४६॥ भद्रसालाभिधवने जम्बूशाल्मलीवृक्षयोः । अष्टाष्टेत्यष्टपंचाशत् भूमिकूटा मिथः समाः ॥१५॥ बत्तीस विजय के बत्तीस तथा भरत और ऐरवत के दो, इस तरह कुल चौंतीस, एक समान वृषभ कूट है । भद्रशाल वन के, जम्बू वृक्ष के और शाल्मलीवृक्ष के आठ आठ कुल चौबीस है । इस तरह चौंतीस और चौबीस मिलाकर सब अट्ठावन परस्पर समान भूमि कूट है । (१४६-१५०) एतेषां वक्तुमुचिते पर्वतत्वेऽपि वस्तुतः । कूटत्व व्यवहारोऽयं पूर्वाचार्यानुरोधतः ॥१५१॥ . वस्तुतः तो इन सब को कूट न कहकर पर्वत ही कहना चाहिए । परन्तु पूर्व चार्य के अनुरोध होने के कारण से इस तरह व्यवहार हो गया है । (१५१) महाहृदाश्च षट् पद्म पुण्डरीकी समाविह । . महापद्य महापुण्डरीकावपि मिथः समौ ॥१५२॥ . तिगिछि केसरिणो च तुल्यौ द्विनौ यथोत्तरम् । दश देवोत्तरकुरु हृदाः पद्महृदोपमा ॥१५३॥ बड़े सरोवर छ: कहे हैं, उसमें पद्म सरोवर और पुंडरीक सरोवर, ये दोनों एक समान है । महापद्म और महापुंडरीक ये दोनों एक समान सरोवर हैं, तथा तिगिंछि और केसरी ये दोनों एक समान सरोवर हैं । वे उत्तरोत्तर पूर्व-पूर्व के से दोगुणा है। दोनों कुरु में पद्म सरोवर के समान दस सरोवर है । अतः कुल मिलाकर सोलह सरोवर है । (१५२-१५३) ... एवं हृदा षोडशैते षण्महाहृद देवता । श्री ही कीर्ति बुद्धि लक्ष्म्यः परस्परं समा ॥१५४॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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