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वैताढयस्याप्यत्र तत उत्तरस्यां किलाल्पकः । आयामो दक्षिणस्यां च वर्द्धमानः क्रमात् महान् ॥११२॥ याम्यविद्याधर श्रेण्यां विद्याधरपुराण्यतः । षष्टिः भवन्त्युदीच्यायां श्रेण्यां पंचाशदेव च ॥११३॥
इससे इस क्षेत्र में वैताढय की भी लम्बाई, जो उत्तर दिशा में स्वल्प है, वह दक्षिण में क्रमशः बढ़ती जाती है । और इस तरह होने से दक्षिण तरफ की विद्याधरों की श्रेणि में साठ नगर हैं, जबकि उत्तर दिशा की श्रेणी में इनके पचास नगर है। (११२-११३)
शेषं सर्वमाभियोग्य श्रेणि वेदी वनादिकम् । ज्ञेयं भरत वैताढयोपम मुक्तानुसारतः ॥१४॥
इसके शेष सब पदार्थ अर्थात् अभियोगिकों की श्रेणी, वेदी, वन आदि भरत क्षेत्र के जो वैताढय कहे गये हैं, उसी के अनुसार है । (११४)
कूटामि नव चात्रापि तन्नामानि तथा क्रमात् । किन्तु नाम्नि विशेषोस्ति, द्वितीयस्याष्टमस्य च ॥११५॥ दक्षिणैरवता ख्यं द्वैतीयीकं भवेदिह । उत्तरैरवता‘ख्यं, भवेच्च कूटमष्टमम् ॥११६॥
इस वैताढय पर्वत पर भी नौकूट-शिखर है। दूसरे और आठवें कूट सिवाय उनके नाम पूर्व के समान है । दूसरे का नाम दक्षिणैरवतार्ध है और आठवें का नाम उत्तरैरवतार्ध है । (११५-११६)
रक्तारक्तावती स्रोतस्विनीभ्यां तस्थुषान्तरे ।
वैताढयेन च षट्खंडमिदमैरावतं कृतम् ॥११७॥
रक्ता और रक्तावती नदियों से, तथा बीच में रहे वैताढय पर्वत के कारण इस ऐरवत क्षेत्र के छः विभाग होते हैं । (११७) तथा च- उत्तरार्ध मध्यखंडे उदीच्यलवणोदधेः । .
दक्षिणस्यामुदीच्यां च वैताढयाभिध भूधरात् ॥११८॥ चतुर्दशाधिकशतं योजनानां कलास्तथा । एका दशातिक्रम्याब्धि वैताढयाभ्यामिहान्तरे ॥११६॥