________________
(३४१)
— अस्याप्युभयतः कूटौ समश्रेण्या व्यवस्थितौ ।
धुयौँ युगन्धरस्येव महीन्द्रस्येव चामरौ ॥१०८॥ " इसके भी दोनों तरफ में सम श्रेणि में दो गजकूट आये हैं, वह मानो युगंधर के दोनों ओर रहे दो बैल हों, अथवा राजा के दोनों तरफ में रहे दो चमर हों, इस तरह लगते हैं। (१०८) - शीतोदायाः दक्षिणतो नैर्ऋत्यां स्वर्णभूभृतः ।
बहिर्देवकुरुणां च प्रासादः प्राग्वदाहितः ॥१०६॥
देवकुरु के बाहर, शीतोदा नदी की दक्षिण में, और मेरु पर्वत की नैऋत्य . में, पूर्व के समान एक प्रासाद आया है । (१०६)
शीतोदाया उत्तरतः. पश्चिमायां सुमेरूतः । . सिद्धानां सदनं कूटौ तस्याप्युभयतः स्थितौ ॥१०॥
शीतोदा नदी के उत्तर में, और मेरु पर्वत के पश्चिम में एक सिद्ध मंदिर है, और इसके भी दोनों बगल में दो गजकूट आये है । (११०)
शीतोदाया. उत्तरतो वायुकोणे सुमेरूतः ।
बहिरूत्तरकुंरुभ्यः प्रासादः सुरभूभृतः ॥१११॥ .:. उत्तर कुरु के बाहर, शीतोस नदी के उत्तर में, और मेरु पर्वत के वायव्य कोने में सुरेन्द्र का प्रासाद आया है । (१११) . : शीता नद्याः पश्चिमायामुदीच्यां मन्दराचलात् । .
.. उत्तरासां कुरुणां च मध्येऽस्ति सिद्धमन्दिरम् ॥११२॥ - उत्तर कुरु के मध्य भाग में, शीता नदी के पश्चिम में, और मंदराचल (मेरु) की उत्तर में भी एक सिद्ध मंदिर है । (११२)
कूटौ द्वौ तदुभयतो मेरोः सर्वेऽप्यमी स्थिताः । विहारकूट प्रासादाः पंचाशद्योजनान्तरे ॥११३॥
इसके भी दोनों तरफ में दो गजकूट पर्वत आए हैं । ये सर्व सिद्ध मन्दिर गजकूट पर्वत और प्रासाद मेरूपर्वत से पचास पचास योजन के अन्तर में आये है। (११३)
योजनानां पंचशतान्युच्चैस्त्वेन भवन्त्यमी । गव्यूतानां पंचशतीं निमग्नाश्च धरोदरे ॥१४॥