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शतानि पंच विस्तीर्णे गजदन्तगिराविदम् ।। सहस्र योजन पृथुकूटं माति कथं ननु ॥२०२॥
यहां प्रश्न करते हैं - पांच सौ योजन विस्तार गजदंत पर्वत के समान इस एक हजार योजन विस्तार वाले की समानता किस तरह हो सकती है ? (२०२) अत्रोच्यते - गजदन्त गिरि व्याप्य निजार्थेन स्थितं ततः।
गिरेरूभयतो व्योम्नि शेषार्धेन प्रतिष्ठितम् ॥२०३॥ इसका उत्तर देते हैं - यह शिखर गजदंत के ऊपर आधा है, शेष आधा गिरि के दोनों तरफ आकाश में झूलता है । (२०३)
तथोक्तं क्षेत्र समास वृहवृत्तौ - "एव हरिकूट हरिस्सह कूटयोरपि निज निजाश्रय गिर्योः यथा रूपं उभय-पार्वे आकाश भवरूद्धय स्थितत्वं परि भावनीय मिति।"
इस विषय में क्षेत्र समास की बृहत् वृत्ति में कहा है कि - 'इसी तरह हरिकूट और हरिस्सह शिखर अपने-अपने आश्रय रूप पर्वत पर यथा रूप दोनो तरफ आकाश में झूलते रहते है । ऐसा समझना ।'. -: आंद्यकूटं जिनगृहं तथा पंचमषष्ठयोः ।
सुभोगाभोगमालिन्यो दिक्कुमार्यो निरूपिते ॥२०४॥
प्रथम शिखर पर जिनेश्वर भगवान का एक चैत्य है, और पांचवे और छठे शिखर पर अनुक्रम से सुभोग और भोगमालिनी नाम की दिक्कुमारिका निवास करती है । (२०४)
शेषेषुः षट्सु कूटेषु पल्योपमायुषस्सुराः । कूटानुरूपनामनो महद्धर्या विजयोपमाः ॥२०॥
शेष छः शिखरों पर एक पल्योपम के आयुष्य वाले, शिखर सद्दश नाम वाले तथा विजय देव समान ऋद्धिवाले देव निवास करते है (२०५)
एतेषां देवदेवीनामैशान्यां मन्दराद् गिरेः ।
जम्बू द्वीपेऽन्यत्र राजधान्यो हरिस्सहं बिना ॥२०६॥
हरिस्सह के बिना के शिखर पर रहने वाले देव देवियों की राजधानी मेरू पर्वत से ईशान कोने में अन्य जम्बू द्वीप में है । (२०६)