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पर्वत है । इसके बाद 'पुष्कलावती' नाम का विजय आता है । जिसने अभी 'महान् पुण्य उर्पाजन किया हो तभी दर्शन होते हैं । जगत के अंधकार दूर करने में सूर्य समान श्री सीमंधर स्वामी तीर्थंकर भगवन्त विचरते है । उसके बाद वनमुख आता है । (३१-३६)
ततः परं वनमुखमित्येवं विजयाष्टकम् । . शीताया उत्तरतटे पर्यन्ते वन राजितम् ॥३७॥
इस तरह से आठ विजय है, वे शीता नदी के उत्तर किनारे पर आए है, और इसके पर्यन्त भाग में सुशोभित वन है । (३७) .
तत्संमुखं वनमुख शीताया दक्षिणे तटे ।। तस्मात्पश्चिमतो वत्सनामा विजय आहितः ॥३८॥ युगंधरजिनश्रीमान् विजयेऽस्मिन् विराजते । ... । सुरेश्वरकरामशैरसकृन्यसृणकं मः ॥३६॥ त्रिकूटः पर्वतोऽस्यान्ते सवत्सा विजयस्ततः ।
तप्ता नामान्तरनदी तस्य सीमाविधायिनी ॥४०॥
इसके सन्मुख शीता नदी के दक्षिण किनारे वनमुख है, इसके पश्चिम में "वत्स' नाम का विजय है, उसमें इस समय इन्द्र महाराजा जिनके चरणों की सेवा कर रहा है ऐसे श्री मान युगंधर तीर्थंकर परमात्मा विचर रहे है । इस विजय की सीमा त्रिकुट नामक पर्वत है, उसके बाद 'सुवत्स' नाम का विजय आता है, इसकी 'तप्ता' नाम की अन्तर नदी है । (३८-४०).
ततो महावत्सनामा विजयोऽस्य च सीमनि । ' शैलो वैश्रमणकूटस्तस्य पश्चिमतः पुनः ॥४१॥ वत्सावतीति विजयस्यतस्य सीमाविधायिनी । नदी मत्ता ततः प्रत्यग् रम्याख्यो विजयस्ततः ॥४२॥
उसके बाद 'महावत्स' नामक विजय आता है उसकी सीमा में वै श्रमण नाम का पर्वत है, उसकी पश्चिम दिशा में 'वत्सावती' नाम का विजय है, यह सीमा मत्ता नाम की नदी से युक्त है । इसके बाद रम्य नाम का विजय है इसकी सीमा में अंजन नाम का पर्वत खड़ा है । (४१-४२)
अंजनादिरमुष्यान्ते रम्यको विजयस्ततः । उन्मत्ताख्या नदी तस्या विजयो रमणीयकः ॥४३॥ .