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________________ (१५३) होता है । इसी तरह सर्वत्र समझ लेना ।। (५१) एवं च मूलादुत्क्रान्ते योजनानां चतुष्टये । मूल व्यासे चतुरूने स्याद्विस्तारोऽष्ट योजनः ॥५२॥ और मूल से ऊपर चार योजन जाने के बाद इसका विस्तार १२-४-८ योजन होता है । (५२) तथास्य मूर्ध्नि पूर्णेषु योजनेषु किलाष्टसु । मूल व्यासेऽष्टभिन्यूँने व्यासोऽब्धिमित योजनः ॥५३॥ और इसका शिखर जो मूल से आठ योजन का है उसका वहां विस्तार १२-८ = ४ योजन होता है । (५३) उक्तं जम्बूद्वीपमानं जगत्या मूलविस्तृतिः । भाव्यैवमखिलद्वीपपाथरेधिजगतीष्वपि ॥५४॥ इसी तरह जम्बू द्वीप का प्रमाण तथा जगती के मूल का विस्तार कहा है । इसी ही तरह सर्वद्वीप समुद्र तथा जगती में समझ लेना । (५४) इत्यर्थतो वीरंजयसेहर क्षेत्रविचारवृत्तौ ॥ इस प्रकार 'वीरंजय क्षेत्र विचार की टीका का भावार्थ है । अथास्योपरि भागस्य चतुर्योजनविस्तृतेः । . मध्यदेशे सर्वरत्नमयी राजति वेदिका ॥५५॥ अब इसके चार योजन के विस्तार वाले, शिखर के भाग के मध्य में ही सर्व रत्नमय वेदिका शोभ रही हैं । (५५) सोपरिष्टाद्रिष्टरत्नमयी वज़मयी त्वधः । वजस्तंभस्वर्णरूप्यफलकै रूपशोभिता ॥५६॥ यह वेदिका वज्र के स्तंभ तथा सोने चांदी के तख्तों से शोभ रही है । इसके ऊपर के भाग रिष्ट रत्नमय और नीचे के भाग वज्रमय है (५६) नरकिन्नरगन्धर्ववषोरगाश्वहस्तिनाम् । रम्या नाना विधै रूपैर्भाति सातिमनोरमैः ॥५७॥ और वह वेदिका पुरुष, किन्नर, गंधर्व, वृषभ, सर्प, घोड़ा और हाथी आदि विविध प्रकार के मनोहर चित्रों से शोभ रही है । (५७)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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