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________________ ( १२० ) नव स्युः प्रस्तटास्तेषां प्रत्येकमिदमन्मतरम् । सहस्राणि द्वादशैव त्रिशती पंचसप्ततिः ॥१६६॥ युग्मं । इसमें भी ऊपर और नीचे के हजार-हजार योजन छोड़कर शेष के एक लाख छब्बीस हजार योजन प्रमाण मध्यभाग में नौ प्रतर हैं और वे एक दूसरे से बारह हजार तीन सौ पचहत्तर योजन के अन्तर से होते हैं । (१६८ - १६६) प्रति प्रतरमेकैको मध्ये स्यान्नरकेन्द्रकः । ते च तप्तः तपितश्च तपनः तापनस्तथा ॥ १७० ॥ निदाधश्च प्रज्वलितः परः उज्जवलिताभिधः । तथा संज्वलिताभिख्यः संप्रज्वलित संज्ञकः ॥१७१॥ युग्मं । प्रत्येक प्रतर में एक-एक नरकेन्द्र है और उनके नाम - १ - तृप्त, २ - तपित, ३- तपन, ४- तापित, ५ - निदाध, ६- प्रज्वलित, ७- उज्वलित, ८- • संज्वलित और ६ - संप्रज्वलित हैं । (१७०-१७१) एभ्यश्च पंक्तयो दिक्षु विदिशासु च निर्गताः । पचंविंशतिरावासास्तत्र दिग्वर्त्तिपंक्तिषु ॥ १७२॥ विदिशा पंक्तिषु चतुर्विंशतिः नरकालयाः । प्रथम प्रतरे सप्तनवत्याढयं शतं समे ॥१७३॥ इन नरकेन्द्रों से चार दिशाओं में चार और चार विदिशाओं में चार मिलकर आठ पंक्ति अथवा आवली निकलती हैं। इसमें दिग्वर्ति पंक्तियों में पच्चीस पच्चीस और विदिग्वर्ति पंक्तियों में चौबीस चौबीस नरकवास हैं। इस तरह प्रथम प्रतर में समग्र एक सौ सत्तानवें नरकावास है । (१७२-१७३) द्वितीयादि प्रस्तटे स्युः श्रेण्य एकैकवर्जिताः । ततो द्वितीय एकोननवत्याढयं शतं समे ॥१७४॥ और अन्य इसके बाद के प्रतरों में प्रत्येक श्रेणि में एक-एक कम करके , नरकवास हैं इस कारण से हिसाब करते अन्य प्रतर में सारे मिलाकर कुल एक सौ नवासी नरकवास होते हैं । (१७४) सैकाशीति तृतीये तच्चतुर्थे सत्रिसप्तति । पंचमे प्रतरे प्रोक्तं पंच षष्टि युतं शतम् ॥ १७५ ॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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