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७- जिव्ह, ८- अपजिव्ह, ६-लोल, १०- लोलावत तथा ११- घन लोल है। इन नरकेन्द्रों से. प्रत्येक प्रतर में आठ-आठ नरकवास की श्रेणियां निकलती हैं । (१३१-१३२) ।
तत्राद्यप्रतर मध्यनरकादावली प्रति । षट् त्रिंशत् दिक्षु नरकाः पंच त्रिंशत् विदिक्षु च ॥१३३॥ 'प्रथमे पंक्तिगाः पंचाशीतियुक्तं शतद्वयम् । द्वितीयादिषु चैकेकहीनाः स्युः सर्वपंक्त्यः ॥१३४॥ द्वितीय प्रतरे तस्मात् द्विशती सप्तसप्ततिः । तृतीये पंक्ति नरका द्विशत्येकोन सप्ततिः ॥१३५॥ चतुर्थे पंक्ति नरका द्वे शते सैकषष्टि के । पंचमे द्विशती तेष त्रिपंचाशत्समन्विता ॥१३६॥ पंचचत्वारिशदाढये द्वे शते षष्ट ईरिताः । सप्तम प्रस्तटे सप्तत्रिंशताढया शतद्वयी ॥१३७॥ एकोनत्रिंशदधिके द्वे शते प्रस्तटेऽष्टमे । एकविंशत्यधिके च द्वे शते नवमे मताः ॥१३८॥ शतद्वयं च दशमे त्रयोदशाधिकं भवेत् । एकादशे प्रस्तटे च पंचोत्तरं शतद्वयम ॥१३६॥
प्रथम 'प्रतर के मध्य के नरकवास से चारों दिशाओं में छत्तीस-छत्तीस और चार विदिशाओं में पैंतीस-पैंतीस नरकवासी होते हैं । अतः इस तरह वहां प्रथम प्रतर में दो सो पचासी नरकावास होते हैं । उसके बाद के प्रतर में प्रत्येक पंक्ति में उत्तरोत्तर एक-एक कम होता है। अतः दूसरे प्रतर में दो सौ सतहत्तर, होते है, तीसरे प्रतर में दो सौ उनहत्तर होते हैं । चौथे में दो सौ इकसठ, पांचवें में दो सौ तिरपन, छठे में दो सौ पैंतालीस, सातवें में दो सौ सैंतीस, आठवें में दो सौ उन्तीस, नौवें में दो सो इक्कीस, दसवें में दो सौ तेरह, और ग्यारहवें प्रतर में दो सौ पांच नरकावास होते हैं । (१३३-१३६)
षड्विंशतिः शतानि स्युः नवतिः पंचभिर्युता । वंशाया नरकावासाः सर्वे पंक्तिगताः किल ॥१४०॥
इस गिनती से इस नरक पृथ्वी में सब मिलाकर पंक्तिगत नरकावास दो हजार छह सौ पचासी होते हैं । (१४०)