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(११०) षडंगुलाधिका एकत्रिंशद्धसतास्त्रयोदशे । प्रतटे षु वपुर्मानं क माद्रत्नप्रभाक्षितेः ॥१०१॥
इस नरक के पहले प्रतर में नारको का शरीरमान तीन हाथ का होता है, दूसरे प्रतर में पांच हाथ और साढे आठ अंगुल का है तीसरे प्रतर में सात हाथ और सत्तरह अंगुल है, चौथे में दस हाथ और ढेड अंगुल का है, पांचवे में बारह हाथ दस अंगुल है । छठे में चौदह हाथ साढ़े अठारह अंगुल है, सातवें में सत्तरह हाथ
और तीन अंगुल है आठवें में उन्नीस हाथ साढ़े ग्यारह अंगुल है, नौवें में इक्कीस हाथ बीस अंगुल है, दसवें में चौबीस हाथ साढ़े चार अंगुल है, ग्यारहवें में छब्बीस हाथ तेरह अंगुल है, बारहवें में अठाईस हाथ और ऊपर साढ़े इक्कीस अंगुल है और अन्तिम तेरहवें प्रतर में एकतीस हाथ और छः अंगुल है। इस तरह धर्मा रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रतरों में नरकों का शरीर मान होता है । (६४-१०१) .
स्वाभाविक तनोर्देहमानमेतदुदीरितम् । स्वस्वदेहात् द्विगुणितं सर्वत्रोत्तरवैक्रियम् ॥१०२॥
ये सर्व प्रमाण कहे हैं वह उनका स्वाभाविक शरीर का समझना । इनका उत्तर वैक्रिय शरीर तो अपने-अपने शरीर से गुना ही होता है । (१०२)
जघन्यतस्तु सहजोत्तर वैक्रिययोः क्रमात् । अंगुलासंख्यसंख्याशौ मानं प्रारंभ एवं तत् ॥१०॥
उनके स्वाभाविक तथा उत्तर वैक्रिय शरीर का मान जघन्यतः अनुक्रम से अंगुल के असंख्यात तथा संख्यातवें भाग समान है और वह प्रारंभ समय में ही होता है । (१०३)
सर्वास्वपि क्षितिष्वेवं सर्वेषां नारकांगिनाम् । . स्वाभाविकांगात् द्विगुणं ज्ञेयमुत्तर वैक्रियम् ॥१०४॥
इस तरह से सर्व नरक जीवों का उत्तर वैक्रिय शरीर मान इनका स्वाभाविक शरीर मान से दोगुना जानना । (१०४) ,
अत्र अयं आम्नायः - पइपयर बुढि अंगुल सट्टा छप्पन्न हुंति रयणाए । तिकरतिअंगुलकरसत्तंअंगुलासद्विगुणवीसम् ॥१०५॥