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त्रोटयान्ते निपतन्तस्ते वज्रचंचूविहंगमैः । व्याघ्रादिभिर्विलुप्यन्ते पतिताभुवि वैक्रियैः ॥८४॥
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इन नरक के जीवों को कुंभी में पकाते हैं तब वे पांच सौ पांच सौ योजन ऊँचे उछलते हैं । वहां से वापिस पृथ्वी पर गिरते ही उनका वज्रतुल्य चोंच वाले वैक्रिय पक्षी छेदन - भेदन करते हैं । और वैक्रिय व्याघ्र आदि हिंसक जीव इनका विनाश करते हैं । (८३-८४)
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परमधार्मिकास्ते च पापिनोऽत्यन्त निर्दया: । पंचाग्न्यादितपः कष्टप्राप्तासुरविभूतयः ॥ ८५ ॥ मृगयासक्तवत् मेषमहिषाद्याजिदर्शिवत् । एते हृष्यन्ति ताच्छील्यात् दृष्टातन् िहन्तनारकान् ॥८६॥ हृष्टाः कुर्वन्त्यट्ठहासं त्रिपद्यास्फालनादिकम् ।'. इत्थं यथैषां स्यात् प्रीतिः न तथा नाटकादिभिः ॥८७॥
ये परमाधामी अत्यन्त पापी और निर्दय होते है । पंचाग्नि तप आदि कष्ट कारक तपस्या करने से इनको असुर रूप की विभूति प्राप्त होती है । मृगयासक्त लोगों के समान तथा मेष, भैंसा आदि के युद्ध देखने वालों के समान स्वाभाविक रूप में ही ये पीड़ित होते नरक जीवों को देखकर हर्षित होते हैं तथा ताली बजाकर अट्टहास करते हैं, उसमें वे आनंद मानते हैं। ऐसा आनंद नारक आदि देखने में भी उन्हें नहीं आता । (८५-८७)
मृत्वाण्डगोलिका भिख्याः तेऽपि स्युः जलमानुषः । भक्ष्यैः प्रलोभ्या नीतास्ते तटेऽण्ड गोलकार्थिभिः ॥८८॥ यन्त्रेषु पीड्यमानाश्च सोढकष्टकदर्थनाः । षड्भिर्मासैमृता यान्ति नरकेष्वसकृत्तथा ॥६॥
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और ये भी मरकर फिर अंडगोलिक नामक जलमनुष्य होते हैं । इनको अंडगोल लेने के लिए, भक्ष्य पदार्थ से आसक्त कर, किनारे पर लाते हैं। वहां इनको कोल्हू में डालकर पेलते हैं । वे छः महीने तक कदर्थना (दुःख) सहन कर मृत्यु प्राप्तकर नरक में जाते हैं । (८८-८६)
इस तरह तीसरी परमाधामी कृत वेदना का वर्णन हुआ ।
धर्मायां च त्रिधाप्येताः पूर्वोक्तासन्ति वेदनाः । परं शीतोष्णयोर्मध्ये उष्णैव क्षेत्रवेदना ॥६०॥