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(१०७) परमाधामी नरक जीव की, यम की कुहाड़ी से भी अधिक तीक्ष्ण धार वाली तलवार से छेदन करते हैं वे रूदन करते रहें और भक्षण में तत्पर विषधर, बिच्छुओं से घेर लेते हैं, उनके दोनों हाथ तलवार से छेदन कर फिर उनको करवट से काटते हैं उनको शीशा पिला कर शरीर जला देते हैं, कुम्भी के भूसो में पकाते हैं । (७८) ..
भृज्यन्ते ज्वलदम्बरीषहुत भुग्जालाभिरारावणाः । दीप्तांगारनिभेषु वजभवनेष्वंगारकेषूत्थिताः । दह्यन्ते विकृतोर्ध्वबाहु वदनाः क्रन्दत आर्तस्वराः, पश्यन्तः कृपणा दिशो विशरणा स्त्राणाय को नो भवेत् ॥७६॥
ये नरक के जीव चिल्लाते रहते हैं फिर भी उनको जाज्वल्यमान खदिर की अग्नि ज्वालाओं से सेकते हैं और जलते आग के समान वज्र के भवन में उत्पन्न होते है, वहीं विकृत हाथ मुंह वाले वे दीन स्वर से रूदन करते रहते हैं, फिर भी उनको जलाया जाता है, ये दीन हीन जीव चारों तरफ देखा करते है, परन्तु इनकी कोई सहायता या रक्षण नहीं करता है । (७६)
तीक्ष्णैरसिभिर्दीप्तैः कुन्तैर्विषमैः परश्वधैः चर्कैः। परशुत्रिशूलमुदगरतोमरवासीमुसंढीभिः ॥८०॥ संभिन्नतालु शिरसः छिन्न भुजाः छिन्नं कर्णनासौष्टाः । भिन्न हृदयोदरान्त्रा भिन्नाक्षिपुटाः सुदुःखार्ता ॥१॥ निपतन्त उत्पतन्तों विचेष्टा माना मही तले दीना। नेक्षन्ते त्रातारं नैरयिकाः कर्मपटलान्धाः ॥२॥ इत्यादि ।
तीक्ष्ण तलवार के द्वारा तेजस्वी भालाओं से, विषम कुल्हाड़ी से तथा चक्र, परशु- त्रिशूल, मुदगल, बाण, बास और हथौड़े से इनके तालु तथा मस्तक को चूर्ण बना देते हैं, इनके हाथ, कान, नाक और होठ को छेदन करते हैं तथा हृदय, पेट आंखें एवं आंतों का भेदन कर देते हैं । इस तरह के दुःख भोगते ये कर्म से पतित बने दीन नरकजीव पृथ्वी पर गिरते उठते लोटते रहते हैं, परन्तु इनका कोई रक्षण नहीं करता है । (८०-८२)
तथा - कुम्भीषु पच्यमानास्ते प्रोच्छलन्त्यूर्ध्वमर्दिताः । उत्कर्षतो योजनानां शतानि पंच नारकाः ॥८३॥