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________________ (६८) धन - मोटा, ऊपर हजार योजन संकुचित, मध्य में हजार योजन खाली तथा तीन हजार योजन ऊँचा नरकवास है । (२७) संख्यातयोजनाः केऽपि परेऽसंख्यातयोजनाः । विस्ताराद्दैर्ध्यतश्चापि प्रज्ञप्ता नरकालयाः ॥ २८ ॥ और ये नरकावास लम्बे चौड़े कितने संख्यात योजन है ? और कितने असंख्यात योजन है ? (२८) सर्वास्वपि पृथिवीषु तादृशाः किन्तु मानतः । सीमन्तक: पंचचत्वारिं शद्योजनलक्षकः ॥ २६ ॥ अप्रतिष्ठानश्च लक्षयोजनः सप्तमक्षितौ । परितस्तं च चत्वारोऽसंख्यातकोटियोजनाः ॥३०॥ सातों नरकों में ये आवास इतने ही लम्बे चौड़े हैं परन्तु सीमन्तक जो प्रथम नरक पृथ्वी का नरकेन्द्र है वह पैंतालीस लाख योजन के प्रमाण वाला है, और सातवीं नरक पृथ्वी का अप्रतिष्ठान नाम का है वह लाख योजन का है और इसके आस पास के और चार असंख्यात कोटि योजन प्रमाण के है । (२६-३०) धर्माद्यप्रतरे सीमन्तकाद्य नरकेन्द्रकात् । आवली नरकाः प्रोक्ताः सीमन्तकं प्रभादयः ॥३१ ॥ धर्मा नामक नरक के पहले प्रस्तर में पहली सीमन्तक नरक में से जो आवलीगत नरकावास निकलने का कहां है वह सीमन्तप्रभ आदि है । (३१) तदुक्तं स्थानांग वृत्तौ - सीमन्त गप्पयो खलु नरओ सीमन्त गस्स पुंव्वेण । सीमन्तगमझिझमओ उत्तर पासे मुणेयव्वो ॥३२॥ सीमन्ता वत्तो पुण नरओ सीमन्त गस्स अवरेण । सीमन्तगावसिट्टो दाहिण पासे मुणे यव्वो ॥३३॥ इसके सम्बन्ध में स्थानांग सूत्र की टीका में उल्लेख इस तरह मिलता है कि - सीमान्तक की पूर्व में प्रभ नामक नरकावास है, उत्तर में सीमन्तक मध्य नाम की है पश्चिम में, सीमन्तावर्त नाम की है और दक्षिण दिशा में सीमन्तका वसिष्ट नाम की है । (३२-३३)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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