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'श्री कीर्ति विजय' उवज्झाय केरो, लहेऐ पुण्य पसाय । सासता जिन थुणी एणी परे, 'विनय विजय' उवज्झा॥ आत्मार्थी महापुरूषों के द्वारा शान्त समय में अपने चेतन मन को प्रायः कर इस शैली में ही ध्वनि रूप से सम्बोधित किया जाता है । संभवत: कथन वैदग्ध्य (वाणिविलास) की शैली विशेष में रचना होने के कारण इस कृति को 'विनय विलास' नाम दिया है । मात्र ३७ पदों की इस लघु रचना का प्रणयन काल संवत्
१७३० के निकट रहा होगा। (१८) भगवती सूत्र की सज्झायः- उपाध्याय श्री जी के संवत् १७३१ के रांदेर के
चातुर्मास के प्रवास काल में इस ग्रन्थ की रचना की गई थी। इक्कीस गाथाओं वाली इस सज्झाय में भगवती सूत्र की विशेषताये तथा भगवती सूत्र की विशेषतायें तथा भगवती सूत्र के वाचन के लाभ आदि बाताये गये है। इस सम्झाय की प्रशस्ति इस प्रकार है। संवत् सत्तर एकत्रीस में रे, रहा रांगुर चौमास । संघे सूत्र ए सांभल्यु रे, अणि मन उल्लास ॥ कीर्ति विजय उवज्झायनोरे, सेवक करे सज्झाय।
एणि परे भगवती सूत्र नेरे, विनय विजय उवज्झाय रे --. (१६) आयं बिलनी सज्झाय :- आयंबिल तप में क्या है? इस तप की महिमा क्या
है? यह सब कुछ बताने वाली इस सज्झाय में ११ गाथा है। इसकी अन्तिम गाथा इस तरह हैआम्बील तप उत्कृष्टों कहयो, विघन-विदारण कारण कहया।
वाच कीर्ति विजय सुपसाय, भाखे विनय विजय उवज्झाय ॥ (२०) श्री आदि जिन विनती:- यह स्तवन गाथा दादा आदीश्वर भगवान के समक्ष
श्री सिद्धाचल ऊपर बोलने लायक है। इस ६७ गाथाओं के स्तवन में भगवान से विनय की गई है, उन्हें प्रसन्न किया गया है, उन्हें मनाया गया है, उन्हें रिझाया गया है, उल्हाना भी दिया गया है और अन्त में उन्हीं की शरण में स्वीकार की गई। इस प्रार्थना में ऐसा शब्द-विन्यास है कि पढ़ने और सुनने वाले के हृदय
रूपी वीणा के तार झंकृत हो उठते हैं। (२१) षड़ावश्यक प्रतिक्रमण स्तवन:- में छः आवश्यक ऊपर एक-एक ढ़ाल है।
इस प्रकार छ: ढ़ाल का स्तवन है। इसमें कुल ४२ गाथा हैं। इसमें अंतिम प्रशस्ति इस प्रकार से है।