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________________ ८४ समणसुत्तं २५६. सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहइ जीवो । जाणंतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहइ ॥१२॥ शुद्धं तु विजानन्, शुद्धं चैवात्मानं लभते जीवः । जानंस्त्वशुद्ध-मशुद्धमेवात्मानं लभते ॥१२॥ २५७. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं . ' जाणइ ॥१३॥ योऽध्यात्म जानाति, स. बहिर्जानाति । यो बहिर्जानाति, सोऽध्यात्म जानाति ॥१३॥ २५८. जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ। . जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥१४॥ . यः एक जानाति, स सर्वं जानाति ।। यः सर्वं जानाति, स एकं जानाति ॥१४॥ . . २५९. एदम्हि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि । ___एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥१५॥ एतस्मिन् रतो नित्यं, सन्तुष्टो भव नित्यमेतस्मिन् । एतेन भव तृप्तो, भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम् ॥१५॥ २६०. जो जाणदि · अरहंतं, दव्वत्तगुणत्तपज्जयतेहिं । सो जाणादि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥१६॥ यो जानात्यहन्तं, द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः । स जानात्यात्मानं, मोहः खलु याति तस्य लयम् ॥१६॥ २६१. लखूणं णिहि एक्को, तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते । तह णाणी णाणणिहि, भुंजेइ चइत्तु परतत्ति ॥१७॥ लब्ध्वा निधिमेकस्तस्य फलमनुभवति सुजनत्वेन । तथा ज्ञानी ज्ञाननिधि, भुङक्त त्यक्त्वा परतृप्तिम् ॥१७॥
SR No.002270
Book TitleSaman Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYagna Prakashan Samiti
PublisherYagna Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages300
LanguageSanskrit, Hindi, Guajrati
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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