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________________ २८ श्री गुणानुरागकुलकम् मैथुनवर्जन-ब्रह्मचर्यव्रत पालन करना ५, ये पाँच पवित्र-निर्मल महाव्रत सब धर्मावलम्बियों के मानने योग्य हैं। - अर्थात् - जैन लोगों के धर्मशास्त्र में ये पाँच धर्म 'महाव्रत' नाम से प्रख्यात हैं तथा सांख्यमत वाले इनको 'यम' कहते हैं और अक्रोध, गुरु सेवा, पवित्रता, अल्पभोजन तथा अप्रमाद, इनको "नियम' कहते हैं। पाशुपत मतावलम्बी इन दशों को 'धर्म' कहते हैं और भागवत लोग पाँच यम को 'व्रत' तथा नियमों को 'उपव्रत' मानते हैं। बौद्धमत वाले पूर्वोक्त दश को 'कुशल-धर्म' कहते हैं और नैयायिक तथा वैदिक वगैरह 'ब्रह्म' मानते हैं। इसी से कहा जाता है कि - 'संन्यासी, स्नातक, नीलपट, वेदान्ती, मीमांसक, साङ्ख्यवेत्ता, बौद्ध, शाक्त, शैव, पाशुपत, कालामुखी, जङ्गम, कापालिक, शाम्भव, भागवत, नग्नव्रत, जटिल आदि आधुनिक और प्राचीन सब मतावलम्बियों ने पवित्र पाँच महा धर्मों को यम, नियम, व्रत, उपव्रत, महाव्रतादि नाम से मान्य रक्खा है, किन्तु कोई दर्शनकार इनका खंडन नहीं करता; अतएव ये पवित्र धर्म सर्वमान्य ऐसी अनेक निर्विवाद बातों का, वादानुवाद चलाकर नीतिपूर्वक सत्यबात को स्वीकार करना और दूसरों को सत्यपक्ष समझा कर सद्धर्म में स्थापित करना यही उत्तम वाद 'धर्मवाद' कहलाता है। धर्मवाद करते समय पक्षापक्षी (ममत्व) को तो बिलकुल छोड़ देना ही चाहिये, क्योंकि - ममत्व को छोड़े बिना धार्मिक निवेड़ा हो ही नहीं सकता है। धर्मवाद में पक्षपात को सर्वथा छोड़कर सत्य बात पर कटिबद्ध रहना चाहिये और सत्यता की तरफ ही अपने मन को आकर्षित रखना चाहिये। यद्यपि यह नियम है कि सत्याऽ सत्य का
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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