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________________ २७ श्री गुणानुरागकुलकम् के सिवाय कुछ भी तत्त्व नहीं पा सकते, इससे यह वाद भी अन्तराय आदि दोषों का उत्पादक और यश का घातक है। परलोकप्रधानेन, मध्यस्थेन तु धीमता। . स्वशास्त्रज्ञाततत्त्वेन, धर्मवाद उदाहृतः ॥६॥ भावार्थ - परलोक को प्रधान रूप से मानने वाला, मध्यस्थ, बुद्धिमान और अपने शास्त्र का रहस्य जानने वाला तथा तत्त्वगवेषी के साथ में वाद करना उसका नाम 'धर्मवाद' है, क्योंकि परलोक को मानने वाला पुरुष दुर्गति होने के भय से वाद करते समय अयुक्त नहीं बोलता और मध्यस्थ (सब धर्मों की सत्यता पर समान बुद्धि रखने वाला) पुरुष गुण और दोष का ज्ञाता होने से असत्य का पक्षपाती नहीं बनता। एवं बुद्धिवान्-धर्म, अधर्म, सद्, असद् आदि का निर्णय स्वबुद्धि के बल से भले प्रकार कर सकता है; इसी तरह स्वशास्त्रज्ञ पुरुष धर्मवाद में दूषित और अदूषित धर्मों की आलोचना (विचार) कर सकता है। इससे इन वादियों के साथ धर्मवाद करने से विचार की सफलता न्यायपूर्वक होती है। . धर्मवाद में मुख्यतया ऐसी बातों का विषय रहना चाहिए कि जिससे किसी मजहब को बाधा न पहुँचे, अर्थात् - जिस बात को सब कोई मान्य करें। उनमें अपेक्षा या नामांतर भले रहे, परन्तु मन्तव्य में भेद नहीं रहना चाहिये अथवा किसी कारण से मत पक्ष में निमग्न हो, जो कोई मान्य न करे, परन्तु युक्ति और प्रमाणों के द्वारा उनका खण्डन भी न कर सके। जैसे - लिखा है कि - पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम्। अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥१॥ भावार्थ - अहिंसा-अर्थात् किसी जीव को मारना नहीं १, सत्य-याने प्राणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी झूठ नहीं बोलना २, अस्तेय-सर्वथा चोरी नहीं करना ३, त्याग-परिग्रह (मूर्छा) का नियम करना ४, और
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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