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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् २९ निर्णय हुए बिना अपनी पकड़ी बात नहीं छूटती, तथापि प्रतिपक्षी की तरफ अनादरता जाहिर करना उचित नहीं है, क्योंकि धर्मवाद में कदाग्रह- दुराग्रह, मतममत्व, अहंकार, तिरस्कार, आत्मश्लाघा, मर्मभेदिता, दुर्गुणोद्भावना, दिल्लगी, उपहास्य, छल, प्रपञ्च, कपट, कुटिलता आदि दोषजन्य दुर्गुणों का सर्वथा अभाव होता है और शील, संतोष, विवेक आदि की प्रधानता रहती है, इससे इस वाद में अश्लील शब्दों का व्यवहार नहीं किया जा सकता, किन्तु परस्पर प्रेमपूर्वक मधुर वचनों से सशास्त्र पारमार्थिक विचार किया जाता है । इसलिये गुणानुरागी महानुभावों को मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावनाओं को धारण कर जहाँ खलपुरुषों का विशेष प्रचार न हो १, जहाँ दुर्भिक्ष या कृपा लोग न हों २, जहाँ राजा और सभासद सत्यप्रेमी हों ३ तथा प्रतिवादी परगुणग्रहणशाली हों ४, इत्यादि वादयोग्य सब तैयारी मिलने पर सत्तत्त्व का निर्णय करने के वास्ते धर्मवाद करना चाहिये । इस प्रकार के वाद से ही अज्ञान का विनाश और सद्धर्म का प्रकाश होता है। कहा भी है कि " वादे वादे जायते तत्त्वबोधः " वास्तव में धर्मवाद से ही सर्वत्र शांतिभाव फैल कर वैर विरोध का अभाव होता है और सत्य धर्म की शुद्धि का उत्साह बढ़ता है तथा हर एक शिक्षा का प्रभाव पड़कर मात्सर्यभाव मिटता है और संसार में पूज्य पद मिलता है। इससे पुरुषों को अपने प्रत्येक भाषण में मधुर और प्रिय वचनों का प्रयोग करना चाहिये। अपने शत्रु या अहितकर्त्ता के दोषों पर भी ध्यान न रखकर उनके गुणों के ऊपर ही अनुरागी बनना चाहिये गुणानुराग के बिना विद्याऽभ्यासाऽऽदि सब व्यर्थ हैं -
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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