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________________ २४ श्री गुणानुरागकुलकम् बालकों के समान बड़े लोग भी जो जी में आता है, कहा करते हैं इसलिये इस बात की परीक्षा करना चाहिये कि - वस्तुतः यह बा कैसी है ? ऐसा सोचकर वह देवता श्रीकृष्ण के मार्ग में एक मरा हुआ दुर्गन्धि से पूर्ण खुले दाँतवाला काला कुत्ता प्रकट करता हुआ, उसकी दुर्गन्धि से व्याकुल हो सम्पूर्ण सेना कपड़े से नाक तथा मुख को बाँधती हुई इधर-उधर दूर होकर चलने लगी, किन्तु श्रीकृष्ण तो. उसी रास्ते से जाते हुए उस कुत्ते को देखकर यों बोले - अहो ! इस काले कुत्ते के मुख में सफेद दंतपंक्ति ऐसी शोभित हो रही है - जैसे मरकत (पन्ने) की थाली में मोती की माला हो। ____ इस प्रकार श्रीकृष्ण को गुणानुराग में लवलीन देखकर देवता विचारने लगा कि - "कहवि न दोसं वयंति सप्पुरिसा" अर्थात् - सत्पुरुष कभी किसी के दोष अपने मुँह से नहीं बोलते, किन्तु अपकारी के भी गुण ही ग्रहण करते हैं। __ पश्चात् उस देवता ने सौधर्मेन्द्र के वचनों को सत्य जानकर और अपना दिव्य रूप प्रकट कर पर गुण ग्रहण करने वालों में प्रधान जो श्रीकृष्ण उसकी बहुत प्रशंसा की और सब उपद्रवों को नाश करने वाली भेरी (दुन्दुभी) दी। फिर श्रीकृष्ण श्री रैवतगिरि के ऊपर समवसरण में प्राप्त हो, भगवान् को वन्दना कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गया। तब भगवान् ने दुरिततिमिरविदारिणी देशना प्रारंभ की कि - हे भव्यो ! इस भवरूपी जंगल में सम्यक्त्व (समकित) को किसी न किसी प्रकार से प्राप्त करके उसकी विशुद्धि (शुद्धता) के निमित्त दूसरों में विद्यमान गुणों की प्रशंसा करना चाहिये। क्योंकि - जिस प्रकार समस्त तत्त्वों के विषय में अरुचि सम्यक्त्व को मूल से नष्ट कर देती है, उसी प्रकार दूसरों के सद्गुणों की अनुपबृंहणा
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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