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श्री गुणानुरागकुलकम् अर्थात् - प्रशंसा न करना तत्त्व (सम्यक्त्व) में अतिचार उत्पन्न करने ‘वाली होती है, फिर जीवों में स्थित गुणों की यदि प्रशंसा न की जाय तो अत्यन्त क्लेश से प्राप्त उन गुणों का कौन आदर करे , इसलिये ज्ञानादि के विषय में जहाँ जितना गुण का लेश दिखाई दे, उसको सम्यक्त्व का अंग मानकर उतनी प्रशंसा करनी चाहिये, क्योंकि जो मात्सर्य के वश होकर या प्रमाद से किसी मनुष्य के सद्गुणों की प्रशंसा नहीं करता, वह "भवदेवसूरि" के समान दुःख को प्राप्त होता है। ____ पाठक महोदय ! थोड़ा-सा अपना ध्यान इधर आकर्षित कीजिए कि - 'गुणानुराग की महिमा कितनी प्रबल है ? जिसके प्रभाव से गुणानुरागी पुरुष की इन्द्र भी नम्रभाव से आश्चर्यपूर्वक स्तुति करते हैं और अनेक दिव्य वस्तुओं की प्राप्ति होती है।
क्योंकि गुणानुरागी पुरुष अमत्सरी होता है। इससे वह किसी की निन्दा नहीं करता और मधुर वचनों से सबके साथ व्यवहार करता है। अपना अहित करने पर भी किसी के साथ बिगाड़ करना नहीं चाहता और न किसी का मर्मोद्घाटन करता है, इसी से वह चुगली तथा दुर्जन की संगति, आदि सदोष मार्गों से बिलकुल संबंध नहीं रखता हुआ धार्मिक विचार में भी विवाद और शुष्कवाद को सर्वथा छोड़कर न्यायपूर्वक प्रवृत्त होता है। वादत्रिपुटी -
तीनों वादों का स्वरूप जो श्रीमान 'श्रीहरिभद्र सूरिजी' महाराज ने स्वकृत 'अष्टक' (अध्यात्मसार) में निरूपण किया है। वही यहाँ प्रसङ्ग वश से दिखलाया जाता है -