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श्री गुणानुरागकुलकम्
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गुणानुरागी महानुभावों का यह स्वभाव होता है कि अपना उत्कट शत्रु या निन्दक अथवा कोई अत्यन्त घिनावनी वस्तु हो, तो भी वह उनके अवगुण के तरफ नहीं देखेगा, परन्तु उनमें जो गुण होंगे उन्हीं को देखकर आनन्दित रहेगा। शास्त्रकारों ने गुणानुराग पर एक दृष्टान्त बहुत ही मनन करने लायक लिखा है कि
सौराष्ट्र देश में सुवर्ण और मणिमय मंदिर तथा प्राकार से शोभित धनद (कुवेर) की बनाई हुई 'द्वारिका' नाम की नगरी थी। उसमें दक्षिण भरतार्द्धपति, यादवकुलचन्द्र श्रीकृष्ण (वासुदेव) राज्य करते थे। वहाँ पर एक समय घातिकर्म-चतुष्टय को नाश करने वाले, मिथ्यातिमिरदवाग्नि-भगवान् 'श्री अरिष्टनेमी स्वामी' श्री रैवतगिरि पर 'नन्दन' नामक उद्यान में देवताओं से रचित समवसरण में विशेष देशना देने के लिये विराजमान हुए। तदनन्तर वनपालक से भगवान् का आगमन सुनकर प्रसन् हो, भरतार्द्धपति श्रीकृष्णजी तीर्थङ्कर भगवान् को वन्दना करने के लिये चले। उनके साथ समुद्रविजयादि दशदशार्ह, बलदेवादि पाँच महावीर, उग्रसेन वगैरह सोलह हजार राजवर्ग और इक्कीस हजार वीर - यौद्धा शाम्ब प्रभृति साठ हजार दुर्दान्त कुमार, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ राजकुमार, महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलवान वर्ग तथा शेठ साहूकार आदि नगर निवासी लोग भी चले |
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इसी समय सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से श्रीकृष्ण का मन (स्वभाव) गुणानुरागी जानकर प्रसन्न हो, सभा में अपने देवताओं से कहने लगा कि - हे देवताओं ! देखो देखो ये महानुभाव 'श्रीकृष्ण' सदा दूसरों के अत्यल्पगुण को भी महान् गुण की बुद्धि से देखता है। इस अवसर पर एकदेवता ने विचार किया कि -
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