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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १३ यह कहावत बहुत ही उत्तम है, क्योंकि जिसके यहाँ कलह (कुसंप) उत्पन्न हुआ कि उस का दिनों दिन घाटा ही होगा, परन्तु उसका अभ्युदय किसी प्रकार नहीं हो सकता। क्योंकि - कलह करने वाला मनुष्य सभी को अप्रिय लगता है इससे उसके साथ सब कोई घृणा रखते हैं, अर्थात् उसको अनादर दृष्टि से देखा करते हैं। अता.व जहाँ संप है, अर्थात् - जहाँ सब कोई संप सलाह से वर्ताव रखते हैं, वहाँ अनेक संपत्तियाँ स्वयं विलास किया करती हैं। निर्बल संघ भी अगर संपीला हो तो बड़े-बड़े बलिष्ठों से भी उसको हानि नहीं पहुँच सकती। और जो सबल संघ (समुदाय) कसंपीला होगा तो वह एक निर्बल तुच्छ मनुष्य से भी पराभव को प्राप्त हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि -संप से जितना कार्य सिद्ध होगा उतना कलह से कभी नहीं हो सकता। क्योंकि कलह सब संपत्तियों का विनाशक है और कार्य सिद्धि का शत्रु है। इसलिये हर एक की उन्नति अपनी अपनी एकता (संप) के उपर स्थित है। जो इस एकता के सूत्र को छिन्न-भिन्न करते हैं वे माने कट्टर शत्रु को अपने घर में निवास कराते हैं, क्योंकि - बिना छिद्र पाये शत्रु घर के अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता। तो यदि सब एक प्राण हो भ्रातृभाव धारण कर सत्य मार्ग को प्रकाशित करें तो किसका सामर्थ्य है कि उनके अंगीकार किये हुए मार्ग पर आक्रमण कर सके। जो लोग कलह के वश में पड़े हैं, वे हजार उपाय करें तो भी इतर जनों से परास्त हुए बिना नहीं रहेंगे अर्थात् - सब जगह उनकी हार ही होगी। पंचतंत्र के तीसरे तंत्र में लिखा है कि -
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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