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________________ १४ श्री गुणानुरागकुलकम लघूनामपि संश्लेषो, रक्षायै भवति धूवम् । महानप्यकजो वृक्षो, बलवान् सुप्रतिष्ठितः ॥१॥ सुमन्देनापि वातेन, शक्यो धूनयितुं यतः । यथा भिन्नत्वमापनो, बलवान् सुदृढोऽ पिंसः ॥२॥ एवं मनुष्यमप्येकं, शौर्येणापि समन्वितम् । शक्यं द्विषन्तो मन्यन्ते, हिंसन्ति च ततः परम् ॥३॥ बलिनाऽपि न बाध्यन्ते, लघवोऽप्येकसंश्रयात् । प्रभञ्जनविपक्षेण, यथैकस्था महीरुहाः ॥४॥ भावार्थ - संप के सद्गुण से बलहीन मनुष्य भी सब प्रकार से अपनी रक्षा कर सकता है, जैसे - यदि वृक्ष सघन न लगे हों दूर-दूर पर लगे हों, तो उन (वृक्षों) को अल्प पवन भी हिला सकता है; उसी प्रकार बलवान् समुदाय में जो ऐक्य का बन्धन न हो, तो उस प्रबल समुदाय को साधारण मनुष्य भी .. पराजित कर सकता है और सघन (सटे हुए) छोटे-छोटे वृक्षों को जिस प्रकार प्रबल पवन भी बाधा नही पहुँचा सकता अर्थात् - हिला नहीं सकता; उसी प्रकार दुर्बल मनुष्य भी जो ऐक्य में स्थित हो जाय तो उनको बलवान् समुदाय भी बाधा नहीं पहुँचा सकता। इसी से कहा जाता है कि - किंचिन्मात्र भी कलह (कुसंप) गुणों का नाशक है, ऐसा समझ कर कलह को छोड़ना ही अत्युत्तम एक समय वह था जिसमें अनेक भाग्यशाली शासनप्रभावक आचार्य और साधु तथा श्रावक परस्पर एक दूसरों के धर्मकार्यों से प्रसन्न रहते थे और अपरिमित मदद देकर एक दूसरे को उत्साहित
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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