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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् शब्दार्थ - (सयलकल्लाण - निलयं) समस्त कल्याण - मंगलकारक शुभ साधनों के स्थान आश्रय रूप (तित्थनाहपयक मलं) तीर्थनाथ : जिनेन्द्रभगवान के चरण कमल को (नमिऊणं) नमस्कार का . (सोहग्गसिरिजणयं) सौभाग्य रूप लक्ष्मी को पैदा करने वाला (परगुणगहणसरुवं) परगुण ग्रहण करने का स्वरूप (भणामि) कहता हूँ। भावार्थ - समस्त गुणनिधी और कल्याणों के स्थान जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों को त्रिधा भक्ति से नमस्कार करके परगुण ग्रहण करने का.. स्वरूप कहा जाता है। विवेचन - इस संसार में जिनपुरुषों ने सब दोषों को अलग कर उत्तम गुणों को संग्रह किये हैं; वे सब के पूज्य माने जा सकते हैं, और वे ही सब सुखों के आश्रय रूप बनते हैं। साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप संघ के जो . संस्थापक हों वे तीर्थनाथ कहे जाते हैं। जिन्होंने अष्टकर्म रूप शत्रुओं के उन्माद से उत्पन्न होने वाले अठारह दोषों को छोड़कर अनुपम अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य संपादन किया है, वे श्रीतीर्थनाथ भगवान् इस भूमंडल में संपूर्ण गुणनिधी हैं। यह बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है कि - जिनमें राग द्वेष का अंकुरोद्भव नहीं है, वे पुरुष सदोष मार्ग कभी नहीं बता सकते। वे तो ऐसा निर्दोष मार्ग ही बतावेंगे जो कि सत्य गुण - सम्पन्न होने से किसी जगह स्खलना को प्राप्त नहीं होगा; क्योंकि - जो पुरुष स्वयं कुसंग से बचकर सर्वत्र निस्पृह हो, और सद्गुणमय शुद्धमार्ग पर दृढ़ रहता हो, वह सब को वैसा ही शुद्ध मार्ग बतलाता है, जिसके आचरण करने से अनेक भव्यवर्ग गुणवान् हो उत्तम योग्यता को प्राप्त करते हैं।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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