SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री गुणानुरागकुलकम् पं. श्री जिनहर्षगणिवर्य्य विरचितं श्री गुणानुराग कुलकम् । स्मरणं यस्य सत्त्वानां, तीव्रपापौघशान्तये । उत्कृष्टगुणरुपाय, तस्मै श्रीशान्तये नमः ॥ १ ॥ उद्देश्य - अति दुष्प्राप्य मनुष्य जीवन को सफल करने के लिये सबसे पहले सद्गुणों पर अनुराग रखने की आवश्यकता है, गुणानुराग हृदय क्षेत्र को शुद्ध करने की महोत्तम वस्तु है। गुणों पर प्रमोद होने के पश्चात् ही सब गुण प्राप्त होते हैं, और सब प्रकार से योग्यता बढ़ती है। इसलिये मद, मात्सर्य, वैर, विरोध, परापवाद, कषाय आदि को छोड़कर मैत्री, प्रमोद, करुणा, माध्यस्थ्य और अनित्यादि भावनाओं को धारण कर परगुण ग्रहण करना तथा गुणानुराग रखना चाहिए; क्योंकि - इसके बिना इतर गुणों का परिपूर्ण असर नहीं हो सकता। अतएव इस ग्रन्थ का उद्देश्य यही है कि हर एक मनुष्य गुणानुरागी बनें, और दोषों को छोड़ें इसी विषय को ग्रन्थकार • आदि से अन्त तक पुष्ट करेंगे और गुणानुराग का महत्त्व दिखलावेंगे। मङ्गलाचरण - - सयलकल्लाण - निलयं, नमिऊणं तित्थनाहपयकमलं । परगुणगहण-सरूवं, भणामि सोहग्गसिरिजणयं ॥१॥ सकलकल्याण-निलयं, नत्वा तीर्थनाथपदकमलम् । परगुणग्रहणस्वरूपं, भणामि सौभाग्यश्रीजनकम् ॥१॥ -
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy