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और उपयोगिता बताई गई है। इस विषय के सिवाय शास्त्राभ्यास, व्याकरण पढ़ने की आवश्यकता, युक्ति-युक्त प्रश्नोत्तर आदि का विवेचन है। पुस्तक उपादेय और हर एक को संग्रह करने लायक है। सरस्वती, भाग १६, खंड २, सितम्बर सन् १९१५, संख्या ३, पूर्ण संख्या १८९।
६. जीवन प्रभा - आकार क्राउन १६ पेजी, पृष्ठ संख्या ४४ है। यह सुन्दर कागज और निर्णयसागर प्रेस, बम्बई में १९७२ के साल, बागरा (मारवाड़) वाले शा. जवानमल चमनाजी, गुलबाजी, धूड़ाजी, वरदीचंद समरथमल पोरवाड़ की तरफ से छपी है। इसमें परम योगिराज जङ्गम, युग प्रधान जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का संक्षेप में जीवन - परिचय दिया गया है और आपका जीवन कितना लोकोपकारक था, इसका मानो साङ्गोपाङ्ग फोटो खींच के दिखला दिया गया है। अभिप्राय -
. “जीवन प्रभा पुस्तकमद्य मम चक्षुर्गोचरतामध्यगमत् । अतः कार्यान्तराण्यपास्य प्रभूतप्रणयतया तदेवाद्राक्षम् । अदो जीवन चरित मतीवोपयुक्तं विद्यते। अत्राने के गुणा दृश्यन्ते आर्यभाषातीवसरला, निरर्थक शब्दाडब्बरविकला, संक्षिप्तसारार्थ प्रदर्शिनी चास्ति। शोधन प्रक्रियापि सुसमीचीना। अवश्यमेव मननार्हमदो पुस्तकमस्ति, अमुना जीवन सुधारणा भवितुमर्हति। भवान् आर्यभाषायाः सुलेख कोऽजनिष्ट। एवं लोकोपकारकान्, बहुशो ग्रन्थान् विरचंयन धर्मप्रचारादिकृत्यं चानुतिष्टन् भवान् सूरिश्रत्वमधिगन्तुं शक्नोति। एवमस्तु, महती मे मानसप्रसत्तिः ।" ...
वि.सं. १९७३ आश्विन कृ. ११ मुः परसपुर (गोंडा)
संस्कृत पाठशाला प्रधानाध्यापक
पं. जयदेव शास्त्री