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श्री गुणानुरागकुलकम्
और राक्षस भी अपने ही दुष्ट, निकृष्ठ और राक्षसी विचारों के फल
हैं।
ऐसा समझकर भवानन्तर में सद्गुणों की सुलभता होने के लिए मलिन विचारों को हटाकर शुद्ध मन से गुणी पुरुषों का बहुमान करने में प्रयत्नशील रहना चाहिए और उत्तमता की सीढ़ी पर जितना चाहिए, उतना चलते न बने तो धीरे-धीरे आगे बढ़ने का उत्साह रखना चाहिए। क्योंकि जो गुणी होने का प्रयत्न करता रहता है वह किसी दिन गुणी बनेगा ही ।
उपसंहार और गुणानुराग का फल -
एयं गुणाणुरायं, सम्मं जो धरइ धरणिमज्झमि । सिरिसोमसुंदरपयं, पावइ सव्वनमणिज्जं ॥ २८ ॥ एतं गुणाणुरागं, सम्यग् यो धारयति धरणिमध्ये। श्री सोमसुन्दरपदं प्राप्नोति सर्वनमनीयम् ॥२८॥
शब्दार्थ - (धरणिमज्झमि ) पृथ्वी पर रहकर (जो ). पुरुष (सम्म) अच्छी तरह (एयं) इस प्रकार के ( गुणाणुरायं) गुणानुराग को (धरइ) धारण करता है वह (सव्वनमणिज्जं) सबके वंदन करने योग्य (सिरिसोमसुंदरपयं ) श्री सोमसुन्दर -तीर्थङ्कर पद को (पावइ) पाता है।
भावार्थ - जो पुरुष गुणानुराग को उत्तम प्रकार से अपने हृदय में धारण करता है, वह सर्वनमनीय सुशोभ्य श्री तीर्थङ्कर पद को पाता है । विवेचन - भले विचार और कार्य सर्वदा भलाई ही उत्पन्न करते हैं, तथा बुरे विचार और कार्य सर्वदा बुराई ही उत्पन्न करते हैं।
। इसका अर्थ यह है कि गेहूँ का बीज गेहूँ उत्पन्न करता है और जौ का जौ । मनुष्य को यह नियम अच्छी तरह समझना चाहिए और