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श्री गुणानुरागकुलकम् निर्गुणी मनुष्य तो उपकार शून्य है, मक्षिकाएँ तो सबका उपकार करती है। उनका मधु अमृत के समान मीठा, रोगनाशक
और बलवर्द्धक है, इसलिए गुणहीन मक्षिका के समान भी नहीं हो. सकता।
तब धनपाल पंडित ने कहा कि गुणहीन 'मनुष्यरूपेण भवन्ति वृक्षाः' मनुष्यरूप से वृक्ष सदृश होते हैं। प्रतिवादी ने वृक्षों का भी पक्ष लेकर कहा कि -
छायां कुर्वन्ति ते लोके, ददते फलपुष्पकम्। पक्षिणां च सदाधाराः गुहाऽऽदीनां च हेतवः ॥१०॥
भावार्थ - वृक्ष लोक में छाया करते हैं, फल पुष्प आदि देते हैं, और पक्षियों के घर उनके आधार से रहते हैं और मकान आदि बांधने में वृक्ष हेतुभूत :.
उष्णकालसंबंधि भयंकर ताप, चौमासा में भूमि की वाफ और जलधारा से हुई वेदना, जंगल में सर्वत्र फैली हुई दावानल की पीड़ा और छेदन भेदन आदि दुःखों को वे सहकर भी दूसरों के लिए सुस्वादु और मिष्ट फल देते हैं। भिन्न-भिन्न रोगों की शान्ति के लिए जितने अवयव वृक्षों के काम आते हैं उतने किसी के नहीं आते। संजीविनी और कुष्टविनाशिनी आदि गुटिका वृक्षों की जाति से ही बनाई जाती है। उत्तम-उत्तम वाद्यों का आनन्द वृक्षों के द्वारा ही होता है, तो गुणहीन को वृक्ष के समान मानना नीति विरुद्ध है।
तदनन्तर धनपाल ने कहा तो गुणहीनों को 'मनुष्यरूपेण तृणोपमानाः' मनुष्यरूप से तृण के सदृश कहना चाहिए। तदन्तर वादी ने तृण का पक्ष अवलम्बन कर के कहा कि -