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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् २२५ करने में चन्दनवत् यह वासय (कौआ) ठीक है जो यहाँ से लक्षयोजन गए हुए पति के गृहागमन को जानता और कहता है। इसी गुण से यह कांचनमय पिंजर में रखा गया है। तदनन्तर धनपाल पंडित ने कहा तो गुणहीन को 'मनुष्यरूपेण हि ताम्रचूड़ाः' ऐसा कहना ही ठीक होगा। उस पर वादी ताम्रचूड़ (मुर्गे) का पक्ष लेकर बोला कि- आपका कहना ठीक नहीं, क्योंकि ताम्रचूड़ उपदेशक का काम देता है, वह पिछली रात्रि में दो-दो चार-चार घड़ी के अन्तर अपनी गर्दन को ऊँची करके कहता है कि___ "भो लोकाः ! सुकृतोद्यता भवत वो लब्धं भवं मानुषं। मोहान्धाः प्रसरत्प्रमादवशतोमाऽहार्यमाहार्यताम् ॥" .. अहो लोगो! तुम्हें मनुष्य अवतार मिला है, सुकृत कार्य करने में उद्यत हो, मोहान्ध बन कर प्रमादवश से सुरक्ष्य मनुष्य भव को व्यर्थ न गमाओ। . . ... कुक्कुट के वचन को सुनकर कई एक पारमेश्वरीय -ध्यान में, कितने एक विद्याभ्यास में, और प्रभु भजन में लीन हो मनुष्य जीवन को सार्थक करते हैं। अतएव उसे गुणहीनों के समान न समझना चाहिए। . पंडित ने कहा तो गुणहीन 'मनुष्यरूपाः खलु मक्षिकाः स्युः' मनुष्यरूपवाला मक्षिका समान है। उस पर भी वादी ने मक्खी का पक्ष लेकर कहा किसर्वेषां हस्तक्त्यैव, जनानां बोधयत्सयौ। ये धर्म नो करिष्यन्ति, घर्षयिष्यन्ति ते करौ ॥९॥ भावार्थ - सब लोगों को हाथ घिसने की युक्ति से मक्षिकाएँ निरन्तर उपदेश करती हैं कि जो धर्म नहीं करेंगे वे इस संसार में हाथ घिसते रहेंगे।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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