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________________ २२४ श्री गुणानुरागकुलकम् खाने के लिए भी स्वामी को अधिक तकलीफ नहीं देता, सामान्य भोजन से ही सन्तुष्ट रहता है। गुणहीन मनुष्यों से तो ऊँट लाख दर्जे अधिक है। तब पंडित धनपाल ने कहा कि गुणहीनों को 'मनुष्यरूपेण भवन्ति काकाः' मनुष्य आकार से कौओं के समान जानना चाहिए। प्रतिवादी ने फिर काक का भी पक्ष लेकर कहा कि - प्रियं दूरगतं गेहे, प्राप्तं जानाति तत्क्षणात् । न विश्वसिति कञ्चापि, काले चापल्यकारकः ॥८॥ - भावार्थ - दूर विदेश में गया हुआ प्रिय पुरुष जब घर की तरफ आने वाला होता है तो उसे काक शीघ्र जान लेता है, किसी का विश्वास नहीं रखता, और समय पर चपलता धारण करता हैं उसकी.समता मूर्ख कैसे कर सकता है? किसी युवती ने एक वायस को स्वर्णमय पीजर में रख के, गृहांगणस्थित वृक्ष पर टाँग रखा था। उसकी सखी ने पूछा कि संसार में मेना, शुक आदि पक्षियों को लीला के लिए लोग रखते हैं किन्तु वायस तो कोई नहीं रखता, नीचे पक्षियों से कहीं गृहशोभा हो सकती है? युवती ने कहा कि -. अन्नस्थः सखि! लक्षयोजनगतस्यापि प्रियस्याऽऽगमे, . वेत्तायाख्याति च धिक् शुकादय इमें सर्वे पठन्तः शठाः। मन्कान्तस्य वियोगरूपदहनज्वालावलेश्चन्दनं, काकस्तेन गुणेन काञ्चनमये व्यापारितः पञ्जरे ॥१॥ . भावार्थ - सखि! उन शुकादि सब पक्षियों को धिक्कार है जो केवल मधुर बोलने में ही चतुर हैं। मेरे स्वामी के 'वियोग' रूप अग्निज्वाला को शान्त
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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