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श्री गुणानुरागकुलकम्
तब पंडित ने कहा कि तो निर्गुण पुरुषों को 'मनुष्यरूपेण गर्दभ जानना चाहिए। इस पर फिर
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खराश्चरन्ति' मनुष्य रूप से प्रतिवादी ने गर्दभ का भी पक्ष लेकर कहा कि शीतोष्ण नैव जानाति, भारं सर्व दधाति च ।
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तृणभक्षणसन्तुष्टः प्रत्यहं भद्रकाऽऽकृतिः ॥ ६ ॥
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भावार्थ - गर्दभ शीत और ऊष्णता की परवाह न कर सब भार को वहन करता है और तृणभक्षण से ही निरन्तर प्रसन्नवदन बना रहता है।
प्रयाण समय में गर्दभ का शब्द मांगलिक समझा जाता है। जो कोई उसके शब्द शकुनों का विचार कर कार्य करता है, वह सफलता प्राप्त करता है। इसलिए गुणहीनों को उसके समान मानना अनुचित है। .
तब पंडित ने कहा कि गुणहीन पुरुषों को 'मनुष्यरूपेण भवन्ति चोष्ट्रा: ' मनुष्य रूप से ऊँट समझना चाहिए। किन्तु प्रतिवादी ऊँट का भी पक्ष ग्रहणकर कहने लगा कि -
वपुर्विषमसंस्थानं, कर्णज्वरकरो रवः ।
करभस्याशुगत्यैव, छादिता दोषसंहतिः ॥७॥
भावार्थ - यद्यपि प्रत्येक अवयव टेढ़े होने से ऊँट का शरीर विषम संस्थान (आकार) वाला है और कानों को ज्वर चढ़ाने वाला उसका शब्द है, लेकिन एक शीघ्रचाल से उनके सभी दोष आच्छादित हैं।
क्योंकि संसार में शीघ्रचाल भी उत्तम गुण है, जो चाल में मन्द (आलसू) है उसका कार्य भी शिथिल समझा जाता है। यद्यपि सब जगह सब चालों से कार्य किया जाता है तथापि हर एक कार्य में प्रायः शीघ्र चाल की अधिक आवश्यकता रहती है और ऊँट