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________________ २२२ श्री गुणानुरागकुलकम् "गुरुशकटधुरन्धरस्तृणाशी, समविषमेषु च लाङ्गलापकर्षी। जगढुंपकरणं पवित्रयोनि - नरपशुना किमु मीयते गवेन्द्र!? ___भावार्थ - वृषभ बड़े-बड़े गाड़ों की धुरा धारण करता है, घास खाता है, सम और विषम भूमि पर हल को खींचता रहता है, खेती करने में तन तोड़ सहायता देता है, अतएव पवित्रयोनि गवेन्द्र (वृषभ) के साथ नरपशु की समानता किस प्रकार हो सकती है? . .. .. ___ इन सभी पशुओं के गुण सुनकर धनपाल पंडित ने कहा कि -गुणहीन पुरुषों का जो प्रत्येक वस्तु का साराऽसार समझने और विचार करने में शून्य हैं। उनको 'मनुष्यरूपेण शुनः स्वरूपाः' मनुष्य रूप से कुत्ते के समान गिनना चाहिए।' उस पर फिर प्रतिवादी ने कुत्ते का पक्ष लेकर कहा कि - . . "स्वामिभक्तः सूचैतन्यः, स्वल्पनिद्रः सदोद्यमी। , अल्पसन्तोषो वाशूरः, तस्मात्तत्तुल्यता कथम्? ॥५॥" . भावार्थ - जो खाने को देता है उसका कुत्ता भक्त होता है। खटका होते ही जागता है, थोड़ी नींद लेता है, नित्य उद्यमशील,है, थोड़ा भोजन मिलने पर भी सन्तोष रखता है, और वचन का शूरवीर है, तो निर्गुणी की तुल्यता कुत्ते से किस तरह की जा सकती है? __ कुत्ते जिनके हाथ दिन रहित, कान धर्मवचन सुनने से शून्य, मुख्य असत्योद्गार से अपवित्र, नेत्र साधुदर्शन से रहित, पैर तीर्थमार्गगत रज से रहित और अन्यायोपात्त द्रव्य से उदर अशुचि है, उनका मांस नहीं खाते तथा शुभाऽ शुभसूचक चिन्ह करते रहते हैं, इत्यादि अनेक गुण कुत्तों में विद्यमान हैं।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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