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________________ १९७ श्री गुणानुरागकुलकम् कि - मार्गानुसारी पुरुष स्वार्थ और परमार्थ दोनों का साथ ही साधन करता है, अर्थात् त्रिवर्ग का साधन कर परमार्थ साधन करता है, किन्तु केवल परमार्थ (परोपकार) ही नहीं करता रहता। नीतिकार स्वार्थ और परमार्थ को साथ ही साधन करने का उपदेश देते हैं, परन्तु धर्मशास्त्र कहता है कि स्वार्थ को छोड़कर केवल परोपकार करने में दत्त चित्त रहना चाहिये। मार्गानुसारी पुरुष नीति मार्ग का आचरण करने वाला होता है, इसीसे वह प्रथम स्वार्थ का साधन करके तदनन्तर परमार्थ में प्रवृत्ति करता है, अतएव मार्गानुसारी पुरुष.मध्यमभेद में ही गिने जाता है। _मध्यमभेदवाला मनुष्य मध्यस्थ स्वभावी होता है, किन्तु किसी भी धर्म (मत) का द्वेषी नहीं होता, इसी से वह सब दर्शनों पर गुणानुराग रख कर प्रत्येक दर्शन से सत्य-सत्य बात का ग्रहण कर लेता है और धीरे-धीरे सद्गुणी बनकर परोपकार करने में दृढ़वती बनता है। . पूर्वोक्त चार भेद वालों की प्रशंसा का फल - एएसिं पुरिसाणं जइ गुणगहणं करेसि बहुमाणं । .ता आसन्नसिवसुहो, होसि तुमं नत्थि संदेहो ॥२२॥ तेषां पुरुषाणां, यदि गुणग्रहणं करोषि बहुमानम् ।। तत आसनशिवसुखो, भवसि त्वं नास्ति संदेहोः ॥२२॥ शब्दार्थ - (एएसिं) इन पूर्वोक्त (पुरिसाणं) पुरुषों का (बहुमाणं) बहुमान पूर्वक (जइ) जो (गुणगहणं) गुण ग्रहण (करेसि) करेगा (तो) तो (तुमं) तू (असन्नशिवसुहो) थोड़े ही समय में मोक्ष सुख वाला (होसि) होवेगा (संदेहो) इसमें संदेह (नत्थि) नहीं है।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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