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________________ १९६ श्री गुणानुरागकुलकम् कि अभी धर्म की प्राप्ति तो हुई नहीं, तो इन्द्रिय समूह को वशीभूत करना किस प्रकार बन सकता है और इन्द्रियों को वश में करने वाला पुरुष गृहस्थाश्रम किस तरह चला सकता है ? इसके समाधान में हम यही कहना समुचित समझते हैं कि 'वशीकृतेन्द्रियग्राम:' इस वाक्य का अर्थ इस तरह करना चाहिये कि जिसने इन्द्रिय समूह को मर्यादीभूत किया है, क्योंकि इन्द्रियों.. का सर्वथा परित्याग तो मुनिराज ही कर सकते हैं, परन्तु मर्यादीभूत अर्थ करने से गृहस्थों के लिये किसी तरह बाधा नहीं रह सकती ! धर्म प्राप्ति के पूर्व मनुष्य स्वभाव से ही मर्यादावर्ती देख पड़ता है। और धर्म प्राप्त होने बाद भी मर्यादा पूर्वक ही विषयादि का आचरण करना शास्त्रकारों ने प्रतिपादन किया है। • जो गृहस्थ इन्द्रियों को मर्यादा में रखकर मानसिक विकारों को रोकने का प्रयत्न करते रहते हैं, उनका जीवन सूखपूर्वक व्यतीत होता है । इन्द्रियों को मर्यादा में रखने से ही शारीरिक और मानसिक अपूर्व शक्ति का उदय होता है और जो विषय लुब्ध हैं, उनकी श सम्पत्ति बिगड़े बिना नहीं रह सकती। एक-एक इन्द्रियों के विषयवशवर्ती प्राणी जब दुःखी देखे जाते हैं, तो पाँचों इन्द्रियों के विषय में लुब्ध होने वाले प्राणियों की दशा बिगड़े, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? जब तक इन्द्रियों को पराजय करने का अभ्यास नहीं किया, तब तक दूसरा अभ्यास किया हुआ सफल नहीं होता, अतएव इन्द्रियों को मर्यादा में रखने वाला गृहस्थ ही धर्म के योग्य होता है । इस प्रकार मार्गानुसारी गुणों का संक्षिप्त स्वरूप कहने के बाद यह लिखा जाता है कि - मार्गानुसारी मनुष्यों को मध्यम भेदं में क्यों गिने ? इसका समाधान ग्रन्थकार महर्षि इस तरह करते हैं
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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