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श्री गुणानुरागकुलकम्
१९५ में भी वह क्रम से उत्तरोत्तर अधिकाधिक सुन्दर सन्मार्गों को पाता है तथा वह ऊपर चढ़कर फिर कभी नीचे नहीं गिरता, किसी की याचना की अपेक्षा नहीं करना चाहिये, अर्थात् यह नहीं सोचना चाहिये कि जब कोई हमसे आकर पूछेगा, तंब हम बतलाएँगे।"
अतएव परोपकार परायण मनुष्य ही धर्म के योग्य बनता है और अनेक सद्गुणों को प्राप्त कर उत्तमता की सीढ़ी पर चढ़ता है, इसलिये हर एक मनुष्य को इसी गुण के अभ्यास करने का प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि उपकार के प्रभाव से भी पुरुष उत्तमदशा को प्राप्त कर सकता है। "अन्तरङ्गरिषड्वर्ग - परिहारपरायणः । वशीकृतेन्द्रियग्रामो, गृही धर्माय कल्पते ॥१०॥"
भावार्थ - ३४. अंतरङ्ग छह शत्रुओं का त्याग करने वाला पुरुष धर्म के और गुण ग्रहण करने के योग्य होता है। वास्तव में प्रत्येक प्राणी वर्ग के गुणों का नाश करने वाले अंतरङ्ग शत्रु ही हैं। यदि अंतरङ्ग शत्रु हृदय से 'बिलकुल निकाल दिये जायँ, तो हर एक सद्गुण की प्राप्ति सुगमता से हो सकती है, जिसने अंतरङ्ग शत्रुओं को पराजित कर दिया, उसने सारे संसार को वश में कर लिया, ऐसा मान लेना बिलकुल अनुचित नहीं है। काम से दाण्डक्य भोज, क्रोध से करालवैदेह, लोभ से अजबिन्दु, मान से रावण तथा दुर्योधन, मद से हैहय तथा अर्जुन और हर्ष से वातापि तथा वृष्णिजंघ आदि को इस संसार मंडल में अनेक दुःखों का अनुभव करना पड़ा है। अतएव अंतरङ्ग शत्रुओं का परित्याग करने वाला मनुष्य अपूर्व और अलौकिक योग्यता का पात्र बनकर अपना और दूसरों का सुधार कर सकता है।
३५. वशीकृतेन्द्रिय ग्रामों, गृही धर्माय कल्पते ।'
अर्थात् जिसने इन्द्रिय समूह को वश कर लिया है, वह पुरुष गृहस्थ धर्म के योग्य हो सकता है। यहाँ पर प्रश्न उपस्थित होता है